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चैत्य-वन्दन-स्तवनादि । ३२५,
[पर्युषण का चैत्य वन्दन ।] पर्व पजुसण गुणनीलो, नव कल्प विहार । चउ मासांतर थिर रहे, एहिज अर्थ उदार ॥ १ ॥ आषाढ सुद चउदश थकी, संवत्सरी पचास । मुनिवर दिन सित्तेरमें, पड़िकमतां चौमास ॥ २॥ श्रावक पण समता धरी, करे गुरुनु बहुमान । कसपूत्र सुविहित मुखे, सांभले थई एक तान ॥ ३ ॥ जिनवर चैत्य जुहारीये, गुरु भक्ति विशाल । प्राये अट भवांतरे, वरीये शिव वरमाल ॥४॥ दर्पगथी निजरूपनो, जुए सुदृष्टि रूप । दर्पण अनुभव अर्पणा, ध्यान रमण मुनि भूप॥५॥ आत्म स्वरूप विलोकतां, प्रगट्यो मित्र स्वभाव ।। 'राय उदायी' खामणां, पी पजुगण दाब ॥ ६ ॥ नव वखाण पूजी सुणो, शुक्ल चतुर्थी सीम । पंचमी दिन वांवे सुगे, होय विरोधी नीम ॥७॥ ए नहीं प पंचमी, सवे समाणी चोथे । भव भीरु मुनि मानसे, भाख्युं अरिहानाथे ॥ ८ ॥ श्रतकेाली वयगा सुणी, लही मानव अवतार। 'श्रीशुभ' वीरने शासने, पाम्या जय जय कार ॥९॥
[दिवाली का चैत्य वन्दन । ] सिद्धारथ नृप कुल-तिलो, त्रिशला जस मात । हरि लंछन तनु सात हाथ, महिमा , विख्यात ॥१॥
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