________________
पाक्षिक अतिचार ।
३०३ + तवगच्छगयणदिणयर, जुगवरसिरिसोमसुंदरगुरूणं । सुपसायलद्धगणहर,-विज्जासिद्धी भणइ सीसो॥१४॥*
अन्वयार्थ---'तवगच्छगयणदिणयर' तपोगच्छरूप आकाश में सूर्य समान [और] 'युगवर' युग में प्रधान [ऐसे] 'सोमसुंदरगुरूणं सोमसुन्दर गुरु के 'सुपसाय' प्रसाद से 'लद्धगणहरविज्जासिद्धी' गणधर की विद्या को सिद्ध कर लैने वाला [मुनिसुन्दर सूरि] 'सीसो' शिष्य 'भणई' [ यो ] कहता है॥१४॥ ___ भावार्थ----यह स्तवन श्रीमुनिसुन्दर सूरि का बनाया हुआ है, जिन्हों ने अपने गुरु श्रीसोमसुन्दर सूरि के प्रसाद से 'गणधर-विद्या प्राप्त की । श्रीसोमसुन्दर सूरि तपोगच्छ में अद्वितीय यशस्वी हुए ॥१४॥
६०-पाक्षिक अतिचार । नाणमि दंसणमि अ, चरणमि तवमि तह य विरियामि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ॥ १ ॥
ज्ञानाचार, दर्शनाचार,चारित्राचार,तपआचार,वीर्याचार, इन पाँचों आचारों में जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते-अनजानते लगा हो, वह सब मन-वचन-काया कर मिच्छा मि दुक्कडं ।
+ तमोगच्छगगनदिनकरयुगवरश्रीसोमसुन्दरगुरूणाम् ।
सुप्रसादलब्धगणधरविद्यासिद्धिर्भणति शिष्यः ॥१४॥
* यह गाथा क्षेपक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org