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________________ क्षेत्रदेवता की स्तुति । २२९ ५४-भुवनदेवता की स्तुति । भुवणदेवयाए करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थः । अर्थ-भुवनदेवता की आराधना के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। ज्ञानादिगुणयुतानां, नित्यं स्वाध्यायसंयमरतानाम् । विदधातु भुवनदेवी, शिवं सदा सर्वसाधूनाम् ॥१॥ __अन्वयार्थ-'भुवनेदेवी' भुवनदेवता 'ज्ञानादिगुणयुतानां' ज्ञान वगैरह गुणों से सहित [और] 'नित्यं स्वाध्यायसंयमरतानाम्' हमेशा स्वाध्याय, संयम आदि में लीन 'सर्वसाधूनाम्' सब साधुओं का 'सदा' हमेशा 'शिव' कल्याण विदधातु' करे ॥१॥ भावार्थ-भुवनदेवता ऐसे सभी साधुओं का सदा कल्याण करती रहे, जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों से युक्त हैं और जो हमेशा स्वाध्याय, संयम आदि में तत्पर बने रहते हैं।॥१॥ ५५--क्षेत्रदेवता की स्तुति । खित्तदेवयाए करमि काउस्सग्गं । अन्नत्थः । अर्थ-पूर्ववत् । यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य, साधुभिः साध्यते क्रिया । सा क्षेत्रदेवता नित्यं, भूपान्नः सुखदायिनी ॥१॥ अन्वयार्थ--'यायाः' जिस के क्षेत्र क्षेत्र को 'समाश्रित्य' प्राप्त करके 'साधुभिः साधुओं के द्वारा 'क्रिया चारित्र 'साध्यते' T भुवनदवताय करानि कायोत्सरगम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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