________________
चैत्य - वन्दन - स्तवनादि ।
२१३
चउद सुपन निर्मल लही, सत्यकी राणी मात । कुन्थु अर जिन अन्तरे, श्रीसीमन्धर जात ॥ ३॥ अनुक्रमे प्रभु जनमीया, वली यौवन पावे । मात पिता हरखे करी, रुक्मिणी परणावे ॥४॥ भोगवी सुख संसारना, संजम मन लावे | मुनिसुव्रत नमि अन्तरे, दीक्षा प्रभु पावे ॥५॥ घाती कर्मनो क्षय करी, पाम्या केवल नाण । रिख लंछने शोभता, सर्व भावना जाण ॥ ६ ॥ चोरासी जस गणधरा, मुनिवर एकसो कोड । त्रण भुवनमां जोवतां, नहीं कोई एहनी जोड ||७| दस लाख का केवली, प्रभुजीनो परिवार । एक समय ऋण कालना, जाणे सर्व विचार ॥८॥ उदय पेढाल जिनान्तरे ए, थाशे जिनवर सिद्ध । 'जशविजय' गुरु प्रणमतां, शुभ वंछित फल लीघ ॥९॥
(२) श्री सीमन्धर वीतराग, त्रिभुवन उपकारी । श्रीश्रेयांस पिता कुले, बहु शोभा तुम्हारी ॥१॥ धन धन माता सत्यकी, जिन जायो जयकारी । वृषभ लंछन विराजमान, वन्दे नर-नारी ||२|| धनुष पांचसो देहडी, सोहे सोवन वान । 'कीर्तिविजय उवझाय' - नो, 'विनय' धरे तुम ध्यान ॥३॥
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org