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________________ आयरिअउवज्झाए सूत्र । १२९ 'कसाया' कषाय किये 'सव्वे' उन सब की 'तिविहेण' त्रिविध अर्थात् मन, वचन और काय से 'खामेमि' क्षमा चाहता हूँ ॥१॥ - भावार्थ---आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक (समान धर्म वाला), कुल और गण; इन के ऊपर मैं ने जो कुछ कषाय किये हों उन सब की उन लोगों से मैं मन, वचन और काय से माफी चाहता हूँ ॥१॥ । सव्वस्स समणसंघ,-स्स भगवओ अंजलिं करिअ सीसे। सव्वं खमावइत्ता, खमामि सबस्स अहयं पि ॥२॥ अन्वयार्थ----'सीसे' सिर पर 'अंजलिं करिअ' अञ्जलि कर के 'भगवओ' पूज्य 'सव्वस्स' सब 'समणसंघस्स' मुनि-समुदाय से अपने] 'सव्वं' सब [अपराध] को 'खमावइत्ता' क्षमा करा कर "अहयं पि' मैं भी 'सव्वस्स' [उन के] सब अपराध को 'खमामि' क्षमा करता हूँ ॥२॥ भावार्थ-हाथ जोड़ कर सब पूज्य मुनिगण से मैं अपने अपराध की क्षमा चाहता हूँ, और मैं भी उन के प्रति क्षमा करता हूँ ॥२॥ १-एक आचार्य की आज्ञा में रहने वाला शिष्य-समुदाय 'गच्छ' कहलाता है। ऐसे अनेक गच्छों का समुदाय 'कुल' और अनेक कुलों का समुदाय 'गण' कहलाता है। [धर्मसंग्रह उत्तर विभाग, पृष्ठ १२९.] सर्वस्य श्रमणसङघस्य भगवतोऽञ्जलिं कृत्वा शीर्षे । सर्व क्षनयित्वा, क्षाम्यामि सर्वस्याहमपि ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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