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प्रतिक्रमण सूत्र । मुझ से 'सुहुमं' सूक्ष्म 'वा' अथवा 'बायरं' स्थूल 'जं किंचि' जो कुछ 'विनयपरिहीणं' अविनय ई जिसको 'तुब्भे' तुम 'जाणह' जानते हो 'अहं' मैं 'न' नहीं 'जाणामि जानता 'तस्स' उसका 'दुक्कडं' पाप 'मि' मेरे लिये 'मिच्छा' मिथ्या हो।
भावार्थ----हे गुरो ! मुझ से जो कुछ सामान्य या विशेष रूप से अप्रीति हुई उसके लिये मिच्छा मि दुक्कडं । इसी तरह आपके आहार पानी के विषय में या विनय वैयावृत्य के विषय में, आपके साथ एक बार बात-चीत करने में या अनेक बार बात-चीत करने में, आपसे ऊँचे आसन पर बैठने में या बराबर के आसन पर बैठने में, आपके संभाषण के बीच या बाद बोलने में, मुझ से थोड़ी बहुत जो कुछ अविनय हुई, उसकी मैं माफी चाहता हूँ।
३६-आयारिअउवज्झाए सूत्र । * आयरिअउवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे अ ।
जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥१॥
अन्वयार्थ--'आयरिअ' आचार्य पर 'उवज्झाएं उपाध्याय पर 'सीसे' शिष्य पर 'साहम्मिए' साधर्मिक पर 'कुल' कुल पर 'अ' और 'गणे' गण पर 'मे' मैं ने 'जे केई' जो कोई
* आचार्योपाध्याये, शिष्ये साधर्मिके कुलगणे च ।
ये मे केचित्कषायाः, सवाँस्त्रिविधेन क्षमयामि ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org