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प्रतिक्रमण सूत्र ।
प्रकार की है, परन्तु 'पडिक्कमणकाले' प्रतिक्रमण के समय 'न संभरिआ' याद न आई 'य' इस से 'मूलगुण' मूलगुण में और 'उत्तरगुणे' उत्तरगुण में दूषण रह गया 'त' उसकी निंदे' निन्दा करता हूँ 'च' तथा 'गरिहामि' गर्दा करता हूँ ॥४२॥ ___ भावार्थ---मूलगुण और उत्तरगुण के विषय में लगे हुए अतिचारों की आलोचना शास्त्र में अनेक प्रकार की वर्णित है । उसमें से प्रतिक्रमण करते समय जो कोई याद न आई हो, उस की इस गाथा में निन्दा की गई है।॥४२॥ * तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स---
अन्भुठिओभि आराहणाए विरओमि विराहणाए। तिविहण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥४३॥
अन्वयार्थ----'केवलि केवलि के ‘पन्नत्तस्स' कहे हुए 'तस्स' उस 'धम्मस्स' धर्म की-श्रावक-धर्म की-आराहणाए' आराधना करने के लिए 'अब्भुट्ठिओमि' सावधान हुआ हूँ [और उसकी] 'विराहणाए' विराधना से 'विरओमि' हटा हूँ। 'तिविहेण तीन प्रकार से मन, वचन, काय से-'पडिकतो निवृत्त होकर 'चउव्वीसं' चौबीस 'जिणे' जिनेश्वरों को 'वंदामि' वन्दन करता हूँ ॥४३॥
भावार्थ---- मैं केवलि-कथित श्रावक-धर्म की आराधना के लिये तैयार हुआ हूँ और उसकी विराधना से विरत हुआ हूँ। मैं * तस्य धर्मस्य केवलि-प्रज्ञप्तस्य
अभ्युत्थितोऽस्मि आराधनायै विरतोऽस्मि विराधनायाः । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तो. वन्दे जिनाँश्चतुर्विशतिम् ॥४३॥
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