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वंदित्तु सूत्र ।
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भावार्थ - जिस प्रकार भार उतर जाने पर भारवाहक के सिर पर का बोझा कम हो जाता है, उसी प्रकार गुरु के सामने पाप की आलोचना तथा निन्दा करने पर शिष्य के पापका बोझा भी घट जाता है ॥ ४० ॥
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सावओ जइ वि बहुरओ होइ ।
+ आवस्सएण एए, - दुक्खाणमंत किरिअं काही अचिरेण कालेण ॥ ४१ ॥ अन्वयार्थ - - ' जइ वि' यद्यपि 'सावओ' श्रावक 'बहुरओ' बहु पाप वाला 'होइ' हो [ तथापि वह ] 'एएण' इस 'आवस्सएण' आवश्यक क्रिया के द्वारा 'दुक्खाणं' दुःखों का 'अंतकिरिअ' नाश 'अचिरेण' थोड़े ही 'कालेण' काल में 'काही' करेगा ॥ ४१ ॥
भावार्थ - यद्यपि अनेक आरम्भों के कारण श्रावक को कर्म का बन्ध बराबर होता रहता है तथापि प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रिया द्वारा श्रावक थोड़े ही समय में दुःखों का अन्त कर सकता है ॥ ४१ ॥
[ याद नहीं आये हुए अतिचारों की आलोचना ] + आलोअणा बहुविहा, न य संभरिआ पडिक्कमणकाले । मूलगुणउत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि ||४२ || अन्वयार्थ -- ' आलोअणा' आलोचना 'बहुविहा' बहुत + आवश्यकेनैतेन श्रावको यद्यपि बहुरजा भवन्ति । दुःखानामन्तक्रियां, करिष्यत्यचिरेण कालेन ॥४१॥
+ आलोचना बहुविधा, न च स्मृता प्रतिक्रमणकाले । मूलगुणोत्तरगुणे, तन्निन्दामि तच्च गर्हे ॥४२॥
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