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प्रतिक्रमण सूत्र । यह अतिथिसंविभाग नामक चौथा शिक्षाबूत अर्थात् बारहवाँ वत है । इस के अतिचारों की इस गाथा में आलोचना की गई है। वे अतिचार इस प्रकार हैं :---- ___ (१) साधु को देने योग्य अचित्त वस्तु में सचित्त वस्तु डाल देना, (२) अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढाँक देना, (३) दान करने के लिये पराई वस्तु को अपनी कहना और दान न करने के अभिप्राय से अपनी वस्तु को पराई कहना, (४) मत्सर आदि कषाय पूर्वक दान देना और (५) समय बीत जाने पर भिक्षा आदि के लिये आमन्त्रण करना ॥३०॥ * सुहिएसु अ दुहिएसु अ, जामे अस्संजएसु अणुकंपा।
रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥३१॥
अन्वयार्थ--'सुहिएसु' सुखियों पर 'दुहिएसु' दुःखियों पर 'अ' और 'अस्संजएसु' गुरुं की निश्रा से विहार करने वाले सुसाधुओं पर तथा असंयतों पर 'रागेण' राग से 'व' अथवा 'दोसेण' द्वेष से 'मे' मैं ने 'जा' जो 'अणुकंपा' दया-भक्ति-की 'तं' उसकी निंदे' निन्दा करता हूँ 'च' तथा 'त' उसकी 'गरिहामि' गर्दा करता हूँ ॥३२॥
* सुखितेषु च दुःखितेषु च, या मया अस्वयतेषु (असंयतेषु) अनुकम्पा।
रागेण वा द्वेषेण वा, तां निन्दामि ताञ्च गर्हे ॥३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org