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वंदित्तु सूत्र ।
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(१) संथारे की विधि में प्रमाद करना अर्थात् उसका पड़िलेहन प्रमार्जन न करना, (२) अच्छी तरह पडिलेहन प्रमार्जन न करना, (३) दस्त, पेशाब आदि करने की जगह का पडिलेहन प्रमार्जन न करना, (४) पडिलेहन प्रमार्जन अच्छी तरह न करना और (५) भोजन आदि की चिन्ता करना कि कब संबेरा हो और कब मैं अपने लिये अमुक चीज बनवाऊँ ॥२९॥
[बारहवें वृत के अतिचारों की आलोचना ]
* सच्चित्ते निक्खिवणे, पिहिणे ववएसमच्छरे चेव ।
कालाइकमदाणे, चउत्थ सिक्खावए निंदे ||३०|t अन्वयार्थ--‘सच्चिते' सचित्त को 'निक्खिवणे' डालने से 'पिहिणे' सचित के द्वारा ढाँकने से 'ववएस' पराई वस्तु को अपनी और अपनी वस्तु को पराई कहने से " मच्छरे मत्सर- ईर्ष्या-करने से 'चेव' और 'कालाइकमदाणे' समय बीत जाने पर आमंत्रण करने से 'चउत्थ' चौथे ' सिक्खावए ' शिक्षावूत में दूषण लगा उसकी 'निंदे' निन्दा करता हूँ ॥ ३० ॥
भावार्थ - - साधु, श्रावक आदि सुपात्र अतिथि को देश काल का विचार कर के भक्ति पूर्वक अन्न, जल आदि देना,
* सचित्ते निक्षेपणे, पिधाने व्यपदेशमत्सरे चैव ।
कालातिक्रमदाने, चतुर्थे शिक्षाव्रते निन्दामि ॥ ३०॥
+ अतिहिसंविभागस्स समणो० इमे पंच०, तंजहा -- सच्चित्तनिक्खेवणया, सच्चित्तपिहिणया, कालइक्कमे, परववएसे, मच्छरिया य [आव०सू०,१०८३७]
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