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________________ १०६ प्रतिक्रमण सूत्र । और 'आभरणे' गहने के [ भोग से लगे हुए ] 'देसि दैनिक 'सव्वं' सब दूषण से 'पडिक्कमें निवृत्त होता हूँ॥ २५ ॥ 'अणट्ठाए दंडम्मि' अनर्थदण्ड विरमण रूप 'तइयम्मि' तीसरे 'गुणव्वए' गुणवत के विषय में [पाँच अतिचार हैं । जैसे:-] कंदप्पे' कामविकार पैदा करने वाली बातें करना, 'कुक्कुइए' औरों को हँसाने के लिये भाँड़ की तरह हँसी, दिल्लगी करना या किसी की नकल करना, 'मोहरि' निरर्थक बोलना, 'अहिगरण' सजे हुए हथियार या औजार तैयार रखना, 'भागअइरित्ते' भोगने की---वस्त्र पात्र आदि-चीजों को जरूरत से ज्यादा रखना, [इन की मैं] 'निंदे' निन्दा करता हूँ ॥२६॥ भावार्थ-अपनी और अपने कुटुम्बियों की जरूरत के सिवा व्यर्थ किसी दोष-जनक प्रवृत्ति के करने को अनर्थदण्ड कहते हैं, इस से निवृत्त होना अनर्थदण्ड विरमण रूप तीसरा गुणवूत अर्थात् आठवा व्रत है । अनथदण्ड चार प्रकार से होता है: (१) अपध्यानाचरण, यानी बुरे विचारों के करने से, (२) पापकर्मोपदेश, यानी पापजनक कर्मों के उपदेश से, (३) हिंसाप्रदान, यानी जिनसे जीवों की हिंसा हो ऐसे साधनों के देने दिलाने से, (४) प्रमादाचरण, यानी आलस्य के कारण से । इन तीन गाथाओं में इसी अनर्थदण्ड की आलोचना की गई है। जिन में से प्रथम गाथा में-छुरी, चाकू आदि शस्त्र का देना दिलाना; आग देना दिलाना; मूसल, चक्की आदि यन्त्र तथा घास लकड़ी आदि इन्धन देना दिलाना; मन्त्र, जड़ी, बूटी तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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