________________
वंदित्त सूत्र । * सहसा-रहस्सदारे, मोसुवएसे अ कूडलेहे अ ।
बीयवयस्सइआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥१२॥ - अन्वयार्थ–'परिथूलगअलियवयणविरईओ' स्थूल असत्य वचन की विरतिरूप 'इत्थ' इस 'बीए' दूसरे 'अणुव्वयाम्म' अणुव्रत के विषय में 'पमायप्पसंगणं' प्रमाद के वश होकर 'अप्पसत्थे अप्रशस्त 'आयरिअं' आचरण किया हो जैसे]:-- "सहसा' विना विचार किये किसी पर दोष लगाना 'रहस्स' एकान्त में बात चीत करने वाले पर दोष लगाना 'दारे' स्त्री की गुप्त बात को प्रकट करना 'मोसुवएसे झूठा उपदेश करना 'अ'
और 'कूडलेहे' बनावटी लेख लिखना 'बीयवयस्स' दूसरे व्रत के 'अइआरे' अतिचारों से ‘देसिअं' दिन में [जो दूषण लगा] 'सव्वं' उस सब से 'पडिक्कमे निवृत्त होता हूँ ॥११॥१२॥
भावार्थ--सूक्ष्म और स्थूल दो तरह का मृषावाद है । हँसी दिल्लगी में झूठ बोलना सूक्ष्म मृषावाद है; इसका त्याग . करना गृहस्थ के लिये कठिन है । अतः वह स्थूल मृषावाद का अर्थात् क्रोध या लालच वश सुशील कन्या को दुःशील और दुःशील कन्या को सुशील कहना, अच्छे पशु को बुरा और बुरे को अच्छा बतलाना, दूसरे की जायदाद को अपनी और अपनी
* सहसा-रहस्यदारे, मृषोपदेशे च कूटलेखे च ।
द्वितीयवूतस्यातिचारान् , प्रतिक्रामामि देवसिकं सर्वम्॥१२॥ + थूलगमुसावायवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच०, तंजहा-सहस्सभक्खाणे रहस्सब्भक्खाणे सदारमंतभेए मोसुवएसे कूडलेहकरणे ।
[ आवश्यक सूत्र, पृष्ठ ८२०
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org