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। ५ ] उस को व्यवहार नय की अपेक्षा से तथा अपूर्ण व अस्थायी समझना चाहिए । सारांश यह है कि ' पहला लक्षण निश्चय-दृष्टि के अनुसार है, अत एव तीनों काल में घटने वाला है और दूसरा लक्षण व्यवहार-दृष्टि के अनुसार है, अत एव तीनों काल में नहीं घटने वाला है । अर्थात् संसार दशा में पाया जाने वाला और मोक्ष दशा में नहीं पाया जाने
वाला है। (१२)प्र०--उक्त दो दृष्टि से दो लक्षण जैसे जैनदर्शन में किये
गये हैं, क्या वैसे जैनेतर-दर्शनों में भी हैं ?
x“अथास्य जीवस्य सहजविजम्भितानन्तशकिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्वलक्षणे वस्तुस्वरूपभूततथा सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गलसंश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसद्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति ।"
[प्रवचनसार, अमृतचन्द्र-कृत टीका, गाथा ५३ ।] सारांश--जीवत्व निश्चय और व्यवहार इस तरह दो प्रकार का है। निश्चय जोवस्व अनन्त-ज्ञान-शक्तिस्वरूप होने से त्रिकाल-स्थाया है और व्यवहार-जीवत्व पौद्गलिक-प्राणसंसर्गरूप होने से संसारावस्था तक ही रहने वाला है।
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