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होने के कारण इन्द्रियग्राह्य है । इस लिये स्वा. भाविक लक्षण की अपेक्षा से जीव को अतीन्द्रिय
समझना चाहिए। १०)म०--अगर विभाव का संबन्ध जीव से है तो उस को
ले कर भी जीव का लक्षण किया जाना चाहिए ? उ०-किया ही है । पर वह लक्षण सब जीवों का नहीं
होगा, सिर्फ संसारी जीवों का होगा। जैसे जिन में सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि भाव हों या जो *कर्म के कर्ता और कर्म-फल के भोक्ता और शरीरधारी
हों वे जीव हैं। (११)प्र०--उक्त दोनों लक्षणों को स्पष्टतापूर्वक समझाइए। उ०-प्रथम लक्षण स्वभावस्पर्शी है,इस लिये उस को नि
श्चयनय की अपेक्षा से तथा पूर्ण व स्थायी समझना चाहिए । दूसरा लक्षण विभावस्पर्शी है, इस लिये
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. *"यः कर्ता कर्मभेदामा, भोका कर्मफलस्य च ।
संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षण: ॥" अर्थात्-जो कर्मों का करने वाला है, उन के फल का भोगने वाला है, संसार में भूमण करता है और मोक्ष को भी पा सकता है, वही जीव है उस का अन्य लक्षण नहीं है।
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