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________________ ७२ प्रतिक्रमण सूत्र । 'वेयावच्चं' वैयावृत्य 'सज्झाओ' स्वाध्याय 'झाणं' ध्यान 'तहेव' तथा 'उस्सग्गो वि अ' उत्सर्ग भी 'अब्भिंतरओ' आभ्यन्तर 'तो' तप 'होई' है ॥७॥ भावार्थ---- आभ्यन्तर तप के छह भेद नीचे लिखे अनुसार हैं (१) किये हुए दोष को गुरु के सामने प्रकट कर के उनसे पाप-निवारण के लिये आलोचना लेना और उसे करना प्रायश्चित्त है । ( २ ) पूज्यों के प्रति मन वचन और शरीर से नम्र भाव प्रकट करना विनय है । (३) गुरु, वृद्ध, ग्लान आदि की उचित भक्ति करना अर्थात् अन्न-पान आदि द्वारा उन्हें सुख पहुँचाना वैयावृत्य है (४) वाचना, पृच्छा, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म - कथा द्वारा शास्त्राभ्यास करना स्वाध्याय 1 (५) आर्त - रौद्र ध्यान को छोड़ धर्म या शुक्ल ध्यान में रहना ध्यान है । (६) कर्म-क्षय के लिये शरीर का उत्सर्ग करना अर्थात् उस पर से ममता दूर करना उत्सर्ग या कायोत्सर्ग है । ये तप आभ्यन्तर इसलिये माने जाते हैं कि इनका आचरण करने वाला मनुष्य सर्व साधारण की दृष्टि में तपस्वी नहीं समझा जाता है परन्तु शास्त्रदृष्टि से वह तपस्वी अवश्य है ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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