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आचार की गाथायें।
७१ (१) थोड़े या बहुत समय के लिये सब प्रकार के भोजन का त्याग करना अनशन है।
(२) अपने नियत भोजन-परिमाण से दो चार कौर कम -खाना ऊनोदरता [ऊणोदरी] है ।
(३) खाने, पीने, भोगने की चीजों के परिमाण को घटा देना वृत्ति-संक्षेप है।
(४) घी, दूध, आदि रस को या उसकी आसक्ति को त्यागना रस-त्याग है।
__(५) कष्ट सहने के लिये अर्थात् सहनशील बनने के लिये केशलुञ्चन आदि करना कायक्लेश है ।
(६) विषयवासनाओं को न उभारना या अङ्ग उपाङ्गों की कुचेष्टाओं को रोकना संलीनता है।
ये तप बाह्य इसलिये कहलाते हैं कि इन को करने वाला मनुष्य बाह्य दृष्टि में सर्व साधारण की दृष्टि में तपस्वी समझा जाता है ॥६॥ * पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ।
झाणं उस्सग्गो वि अ, अभिंतरओ तवो होइ ॥७॥ अन्वयार्थ-'पायच्छित्तं' प्रायश्चित्त ‘विणओ' विनय
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* प्रायश्चित्तं विनयो, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः।
ध्यानमुत्सर्गोऽपि चाभ्यन्तरतस्तपो भवति ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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