________________
संसार- दावानल |
४७
भावार्थ – [ श्रुतदेवता की स्तुति ] जो वर्ण में कुन्द
के
फूल, चन्द्र, गो-दुग्ध, तथा बर्फ के समान सफ़ेद है, जो कमल पर बैठी हुई है और जिसने एक हाथ में कमल तथा दूसरे हाथ में पुस्तकें धारण की हैं, वह सरस्वती देवी सदैव हमारे सुख के लिये हो ॥ ४ ॥
स्तुति ।
२१ - संसार - दावानल संसारदावानलदाहनारं, संमोहधूलीहरणेसमीर । मायारसादारणसारसारं, नमामि वीरं गिरिसारधीरं ॥ १ ॥
अन्वयार्थ - ' संसारदावानलदाहनीरं ' संसार रूप दावानल के दाह के लिये पानी के समान, संमोह - धूली - हरणे - समीरं, मोह रूप धूल को हरने में पवन के समान 6 मायारसा दारणसारसारं ' माया रूप पृथ्वी को खोदने में पैने हल के समान [ और ] गिरिसारधारं ' पर्वत के तुल्य धीरज वाले ' वीरं ' श्री महावीर स्वामी को ' नमामि ' [ मैं ] नमन करता हूँ ॥ १ ॥
१ - इस स्तुति की भाषा सम संस्कृत - प्राकृत है ।
अर्थात् यह स्तुति संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषा के रेलष से रची हुई है । इसको श्री हरिभद्रसूरिने रचा है जो आठवीं शताब्दी में हो गये हैं और जिन्होंने नन्दी, पन्नवणा आदि आगम की टीकाएँ तथा षड्दर्शन समुच्चय, शास्त्र वार्ता समुच्चय आदि अनेक दार्शनिक स्वतन्त्र महान् प्रन्थ लिखे हैं ।
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org