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________________ जय वीराय । ४१ भावार्थ- हे वीतराग ! यद्यपि तेरे सिद्धान्त में नियाणा करने की अर्थात् फल की चाह रखकर क्रिया-अनुष्ठान करने की मनाही है तो भी मैं उसको करता हूँ; और कुछ भी नहीं, पर तेरे चरणों की सेवा प्रति जन्म में मिले----यही मेरी एक मात्र अभिलाषा है ॥ ३॥ * दुक्खखओ कम्मखओ, समाहिमरणं च बोहिलाभो । संपज्जउ मह एअं, तुह नाह ! पणामकरणेणं ॥४॥ ___ अन्वयार्थ- 'नाह' हे नाथ! 'तुह' तुझको ‘पणामकरणेणं' प्रणाम करने से 'दुक्खखओ' दुःख का क्षय, 'कम्मखओं कर्म का क्षय, 'समाहिमरणं' समाधि-मरण 'च' और 'बोहिलाभो अ' सम्यक्त्व का लाभ 'एअं' यह [ सब ] 'मह' मुझको 'संपज्जउ' प्राप्त हो ॥४॥ भावार्थ- हे स्वामिन् ! तुझको प्रणाम करने से और कुछ भी नहीं; सिर्फ दुःख का तथा कर्म का क्षय; समभावपूर्वक मरण और सम्यक्त्व मुझे अवश्य प्राप्त हों ॥ ४ ॥ सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं, सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ॥५॥ अन्वयार्थ----'सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं' सर्व मंगलों का मंगल 'सर्वकल्याणकारणं' सब कल्याणों का कारण; 'सर्वधर्माणां' * दुःखक्षयः कर्मक्षयः समाधिमरणं च बोधिलाभश्च । संपद्यतां ममैतत, तव नाथ ! प्रणामकरणेन ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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