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परमेष्ठि-नमस्कार ।
१६--परमेष्ठि-नमस्कार। नमोर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः ॥
अर्थ-श्रीअरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सब साधुओं को नमस्कार हो ।
१७--उवसग्गहरं स्तोत्र । * उवसग्गहरं-पासं, पासं वदामि कम्म-घणमुक्कं । विसहर-विस-निन्नासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ॥१॥
. १ यह स्तोत्र चतुर्दशपूर्वधारी आचार्य भद्रबाहु का बनाया हुआ कहा जाता है । इस के बारे में ऐसी कथा प्रचलित है कि इन आचार्य का एक वराहमिहिर नाम का भाई था । वह किसी कारण से ईर्ष्यावश हो कर जैन साधुपन छोड दूसरे धर्म का अनुयायी हो गया था और ज्योतिषशास्त्र द्वारा अपना महत्त्व लोगों को बतला कर जैन साधुओं की निन्दा किया करता था। एक बार एक राजा की सभा में भद्रबाहु ने उसकी ज्योतिषशास्त्रविषयक एक भूल बतलाई । इससे वह और भी अधिक जैन-धर्म का द्वेषी बन गया । अन्त में मर कर वह किसी हलकी योनि का देव हुआ और वहां पर पूर्वजन्म का स्मरण करने पर जैन-धर्म के ऊपर का उसका द्वेष फिर जागरित हो गया। इस द्वेष में अन्ध होकर उसने जैन संघ में मारी फैलानी चाही। तब भद्रबाहु ने उस मारी के निवारणार्थ इस स्तोत्र की रचना कर सब जैनों को इसका पाठ करना बतलाया। इसके पाठ से वह उपद्रव दूर हो गया। भादि वाक्य इसका ‘उवसग्गहरं' होने से यह 'उपसर्गहर स्तोत्र' कहलाता है। . + उपसर्गहर-पार्श्वम् पार्श्व वन्दे कर्मघनमुक्तम् ।
विषधरविषनिर्णाशं मङ्गलकल्याणावासम् ॥१॥
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