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________________ श्री तपगच्छ आ उपरांत ते समये जैन साधुओ श्रमण (निम्रन्थ ), अचेलकर अनगार, भिक्षु, त्यागी, २. अचेलक शब्दने स्पष्ट करवा माटे "अ" ना बे अर्थों पर ध्यान आप पडे छे. १. अनिषेध, जेमके अ-जीव-जीवथी भिन्न, जीवरहित. अवृष्टि-वृष्टिनो अभाव. २. अ=अल्पत्व, जेमके अनूदरीकन्या-जाना पेटवाळी कन्या, अज्ञान मनुष्य अल्पज्ञ मनुष्य.अवृष्टि-अल्पवृष्टि. ए ज रीते अचेलक शब्द वस्त्ररहित अने अल्प (सफेद, अल्पकिंमती, जीर्णशीर्ण तथा कम संख्यावाळा ) वस्त्रबाला साघुओनो द्योतक छे. भगवान् महावीर स्वामीना श्रमण संघमां बने प्रकारना साधुओ हता. आजीविकमतना साधुओ एकांत नग्नताना ज पक्षमा हता. वि०सं० १३९ पछी दिगम्बर जैन साधुओए आ पक्षने वधारे मक्कम को छे प्राचीन जैनेतर ग्रन्थकारोए जैनश्रमणोने " निर्ग्रन्थ " " दीर्घतपस्वी" इत्यादि अन्वर्थ शब्दोथी संबोध्या छे, ज्यारे वि. सं० १३९ पछीना जैनेतरशास्त्र-उपनिषद्-ग्रन्थ तथा टीकाग्रन्थना कर्ता भए जैननिर्ग्रन्थोने दिगम्बर, नागा, अहीक (निर्लज्ज ) इत्यादि उपहास सूचक शब्दोथी ओळल्या छे. नग्नताना पक्षकार आधुनिक दिगम्बर विद्वानो पण पूरण, आजीविक, संजयी, कूटिच अवधूत (अघोरी) वगेरेनुं बाह्याचारथी अनुकरण करवामां अभिमान ल्ये छे, परन्तु प्राचीन साहित्य जैनश्रमणोनी अनानतानुं साक्षी छे. A. जेमके-दिगम्बरो सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं व्रतमां सर्वथा वस्नपात्र-उपकरण (ोधो, मुहपत्ति पीछ, कमंडलु) ना त्यागनो समावेश करे छे, ज्यारे दि० भाचार्य श्रीमद् करकजीए "मूलाचार"मां दशकल्पना वर्णनमां श्वेताम्बरोनी जेम "आचेलक्य"ने भिन्न मान्युं छे. आथी पांचमा महाव्रतमा अचेलकतानो समावेश करवो ए दिगम्बराचार्यानी दृष्टिए पण अनूचित मनायुं छे. B. चातुर्याम धर्मवाला जैनश्रमणोनु वर्णन बौद्भशास्त्रोमा उल्लिखित छे के जेओ वस्त्र अने पात्र वगेरे उपकरणो सहित हता. C. बौद्भशास्त्रानुसार गोशाल सम्मत छ अभिजातिओमां जैन अचेलकोने त्रीजी अभिजातिमां दाखल कर्या छे. गाशाळो सम्पूर्ण नग्नताने सर्वश्रेष्ठ मानी छठी अभिजातिमा स्थापे छे ए हिसाबे जैनश्रमणो अल्प वस्त्रधारी होवाथी ज त्रिजी कक्षामां आवे छे. त्यां स्पष्ट कयु छे के:लोहिताभिजातिनाम निग्गत्था-एकसाटिका तिवदन्ति । -दिगम्बर बाबू कामताप्रसादनुं महावीर अने बौद्ध । D. दीघनिकाय पासादिक सुतंतमा उल्लेख छ के-निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्रना मृत्युथी तेना संघमां भेद पडयो छे. गृहस्थ श्रावको तथा श्वेताम्बर निग्रन्था..... E. जैन साधुओ बाधीश परिषहोमां क्षुधा, पिपासा अने अचेलकताने परिषह माने छे. आहार अने पाणी न लेवां ते तपस्या छे, पण जरुर छे छतां निषि आहार-पाणी मळतां नथी एटले चलावी लेबु ते परिषहसहन छे, आ ज रीते वस्त्र न राखवां ते नग्नता छ किन्तु आवश्यक्ता होवा छतां कल्प्य वस्त्र न मळे अने चलावी लेबु ते अचेल-परिषह छे दिगम्बर ग्रंथकारो पण क्षुधा, पिपासा तथा अचेलकताने बराबर परिषह रूपे ज माने छ संभव छे के गोशाळा-अनुयायीओ आवी मल्या पछी जैन निर्ग्रन्थोन आ नाम पडयं होय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003643
Book TitleTapagaccha Shraman Vansh Vruksh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantilal Chottalal Shah
PublisherJayantilal Chottalal Shah
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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