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श्री तपगच्छ
सुधीमां जैन न्यायनो आटला जेटलो विकसित थयो हतो ते पुरेपूरो उपाध्यायजीना तर्क ग्रन्थोमां मृर्तिमान थाय छे, अने वधारामां ते उपर एक कुशळ चित्रकारनी पेठे तेओए एवा सूक्ष्मताना, स्पष्टताना अने समन्वयना रंगो पूर्या छे, जेनाथी मुदितम थई आपोआप एम कहेवाय जोय छे के पहेला त्रण युगर्नु बन्ने संप्रदायर्नु जैन न्याय विषयक साहित्य कदाच न होय अने मात्र उपाध्यायजीनुं जैन न्यायविषयक सपूर्ण साहित्य उपलब्ध होय तोये जेन वाङमय कृत कृत्य छे.'
अति-प्रखर नैयायिक-तार्किक शिरोमणि, समयज्ञ सुधारक, अजोड विद्वान, योगवेत्ता, सुक्ष्मदृष्टा ने बुद्धिनिधान यशोविजयजी उपाध्याये हेमचंद्राचार्य के हरिभद्रसूरिनी गरज सारी छे ने जैन वाङमयने विकसावबामा तेमणे पूरेपुरो फाळो आपेल छे.
अध्यात्मसार, देवधर्मपरीक्षा, अध्यात्मोपनिषद्, आध्यात्मिकमतखंडन सटीक, यतिलक्षण समुच्चय, नयरहस्य, नयप्रदीप, नयोपदेश, जैनतर्कपरिभाषा, ज्ञानबिंदु, ज्ञानसार, द्वात्रिंशत्द्वात्रिंशिकासटीक, कर्मप्रकृति पर टीका, ज्ञानसार, पातंजल योगसूत्रना चतुर्थ पाद पर वृत्ति, अस्पृशद्दगतिवाद सटीक, गुरुतत्त्वविनिश्चय ने ते पर स्वोपज्ञ टीका, सामाचारी प्रकरण टीका साथे, आराधक विराधक चतुभंगी प्रकरण, प्रतिमाशतक, योगविंशिका पर विवरण, न्यायामृततरंगिणा नामनी स्वोपज्ञ टीका, अध्यात्ममतपरीक्षा सवृत्ति, हरिभद्रसूरिकृत-शास्त्रवार्ता समुच्चय पर स्याद्वादकल्पलता नामनी टीका, हरिभद्रसूरिकृत षोडशक पर योगदीपिका नामनी वृत्ति, उपदेशरहस्यसवृत्ति, न्यायालोक, महावीर स्तवन सटीक [ न्यायखंडनखाद्य प्रकरण ], भाषारहस्य सटीक, तत्त्वार्थवृत्ति, वैराग्यकल्पलता, धर्मपरीक्षा सवृत्ति, चतुर्विंशति जिन-अंद्र स्तुतयः, परगज्योतिः पंचविंशतिका, परमात्म ज्योतिः पंचविंशतिका, प्रतिमास्थापन न्याय, प्रतिमा शतक पर स्वोपज्ञवृत्ति, मार्गपरिशुद्धि बगेरे तेमना ग्रंथो मुद्रित थयेला मळे छ; अनेकांतमत व्यवस्था, अष्टसहस्त्री विवरण, [समंतभद्रकृत आप्त परीक्षा उपर दि० अकलंक देवना आसो श्लोकना भाष्य पर दि० विद्यानंद स्वामीनी आठ हजार श्लोकनी टीका ] स्याद्वादमंजूषा, स्तोत्राणी--स्तोत्रावलि, स्तवपरिज्ञा पद्धति वगेरे ग्रंथो अप्रकट छे; ज्यार आकर, मंगलवाद, विधिवाद, वादमाला, त्रिसूत्र्यालोक, दृव्यालोक, प्रभारहस्य, स्याद्वादरहस्य, ज्ञानावर्णव, कूपदृष्टांत विशदीकरण, अलंकारचूडामणी टीका, आत्मख्याति अध्यात्मबिंदु, काव्यप्रकाशटीका, छंदःचूडामणि टीका, तत्वालोक विवरण, वेदान्तनिर्णय, वैराग्यरति, शठप्रकरण, सिद्धान्त तर्क परिष्कार, सिद्धांतमंजरी टीका वगैरे तेमनी अनुपलब्ध कृतिओ छे.
साथेसाथे तेमना ज समकालीन अनुभव योगी मुनिश्री आनंदधननेय याद करवा ज जोईए. तेओए हिंदी-गुजराती भिश्र भाषामां रचेल चोवीस तीर्थंकरोना चोवीस स्तवनो अपूर्व छे अने
६. पंडित श्री सुखलालजीनो 'जैन न्यायनो क्रमिक विकास' नामनो सातमी गुजराती साहित्य परिषदनो निबन्ध.
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