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श्रमण वंशवृक्ष
६३ सूरिजीए चार लाख जिनबिंबोनी प्रतिष्ठा करी हती अने तारंगा, संखेश्वरजी, सिद्धाचलजी, पंचासर, राणकपुर, आरासण (कुंभारीयाजी) वीजापुर आदि स्थानोमां जीर्णोद्धार कराव्या हता. सम्राट अकबरे तेमने "कालीसरस्वती"नु बिरुद आप्युं हतुं. १६७१मां तेमनो स्वर्गवास थयो.
(६०) विजयदेवसूरि तेओ विजयसेनसूरिजीना पट्टधरे हता. सम्राट् जहांगीरे तेओश्रीने मांडवगढमां बोलाव्या हता, अने एमना उपदेशथी प्रसन्न थई तेमने "जहांगिरिमहातपा"नुं बिरुद आप्यु हतुं. तेमणे उदयपुरना महाराणा जगतसिंहने धर्मोपदेश आपी अहिंसा पळावी हती. तेमणे ते माटेनुं फरमानपत्र आप्यु हतुं.'
__ श्रीहीरविजयसूरीश्वरजीना विद्वान शिष्योए राजअनुकूळताना लाभ लई माळवा, मेवाड राजपुताना, दक्षिण, पूर्व देश, पंजाब, लाहार, काश्मिर आदि स्थानोए विचरी जैनधर्मनी खूब प्रभावना अने प्रचार करेल छे अने पूर्वदेशना तीर्थोना उद्धार पण कराव्या छे. पटणाना सुबाने उपदेश आपी शहेर बहार श्री हीरविजयसूरिजीना स्मारक स्थंभ स्थाप्यो अने तेना रक्षण माटे सो विघां जमीन सुबाए आपी. परन्तु पाछळथी तपागच्छीय श्रावका घटी जवाथी ते स्थान दादावाडी बनेल छे. जे आजे मौजुद छे.
आवी ज रीते दक्षिण निझाम हैद्राबादमां पण त्यांना सुबाने उपदेश आपी जगद्गुरु श्रीहीरविजयसृरि, देवसूरिजी वगेरे आचार्यानी पादुका पधरावी छे. त्यां पण सुबाए रक्षण माटे पुष्कळ जमीन
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१. विजयदेवसरिजीए मोगल सम्राट् उपरांस हिन्दुसूर्य मेवाड नरेशने पण केवो उपदेश आप्यो हतो अने एनी केवी असर थई हती ए माटे ते वखते लखायेल एक आज्ञापत्र मळ्यु छे जेनो हिन्दी अनुवाद नीचे मुजब छः
उदयपुर के महाराणा जगतसिंहजी ने आचार्य विजयदेवसूरि के उपदेश से प्रतिवर्ष पोष सुदी १० को वरका गा (गोडवाड) ती पर होनेवाले मेले में आगन्तुक यात्रियों पर से टेक्ष लेना रोक दिया था. और सदैव के लिये इस आज्ञा को एक शिला पर खोदवा कर मन्दिर के दरवाजे के आगे लगवा दिया था, जो कि अभीतक मौजूद है। राणा जगतसिंह के प्रधान झाला कल्याणसिंह के निमंत्रण पर उक्त आचार्य ने उदयपुर में चतुर्मास किया । चतुर्मास समाप्त होने के वक्त एक रात दलबादल महल में विधाम किया. तब महाराणा जगतसिंहजी नमस्कार करने को गये और आचार्य के उपदेश से निम्न लिखित चार बातें स्वीकार करी कि
(क) उदयपुर के पीछोला सरोवर और उदयसागर में मछलियों को कोई न पकडे । (ख) राज्याभिषेकवाळे दिन जीव-हिसा बन्द । (ग) जन्ममास और भाद्रपद में जीव-हिंसा बन्द । (घ) मचीददुर्ग पर राणा कुम्भा द्वारा बनवाये गये जैनवैत्यालय का पुनरुद्धार ।
-(अयोध्याप्रसाद गोयलीय कृत "राजपुतामे के जैनवीर,” पृ. ३४१)
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