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________________ २८ श्री तपगच्छ १. ते समये भगवान् पार्श्वनाथनी परंपराना श्रमण-संधमा प्रधान आचार्य "श्री केशी स्वामी" हता. तेमणे श्री इन्द्रभूति-गौतम गणधर साथे विचारविनिमय करी भगवान महावीरना शासनमा प्रवेश को. तेमनी शिष्य परंपरा आज " पार्श्वनाथसंतानीय" " उपकेशगच्छ” अने "कवलागच्छ"ना नामे मशहूर छे. आ श्वेतांबरीय परंपरा छे. २. श्रमण भगवान् महावीरने अगिआर शिष्यो गणधर हता. भगवान्ना मोक्ष पछी ते दरेकना साधुओ पांचमा गणधर श्री सुधर्मस्वामीनी आज्ञामां आवी रह्या. ते श्री सुधर्मगणधरनी परंपरा पण अत्यारे श्वेताम्बर साधुस्वरूपे विद्यमान छे. जेना ८४ गच्छो थया हता. तपगच्छ ए आ ज परंपरानुं अंग छे. ढुंढकमत पण तेनो ज फणगो छे. ३. भगवान् महावीरना छमस्थपणाना शिष्य अने पछी प्रतिपक्षी मंखलीपुत्र गोशाळे " आजीविकमत "नी स्थापना करी. आ संस्थामा नागा रहेवा माटे एकांत आग्रह हतो. आंतर जीवन गमे तेवू होय, बाह्य जीवनमा दिगंबरपणाने महत्त्व अपातुं हतुं.' ते आजीविक साधुसंघ पण गोशाळाना मृत्यु पछी भगवान् महावीरना शासनमां आवी मळी गयो. छतांय तेने दिगम्बरपणानो आग्रह दृढ हतो. ते आगत संप्रदायमांथी वि० सं० १३९मां " दिगम्बर " संघनो प्रादुर्भाव थयो. आ संघना आज मूळसंध, द्रविडसंघ (वि० सं० ५२६ ), यापनीयसंघ (सं० ७०५ ) काष्ठा ५. बौद्ध ग्रंथो जणावे छे के-मंखलीपुत्र गोशाले वस्त्रधारी अने दिगम्बरोनुं मध्य अंतर काढी सर्व धर्मवादीओना छ वर्ग पाड्या छे; जेमा बोजा वर्गमां बौद्ध भिक्षु, त्रीजामां (अल्पवस्त्र होवाने लीधे ) निर्ग्रन्थो अने पांचमा वर्गमां आजीविक श्रमणोने जाहेर कर्या छे. महानग्ग १-७०-३ तथा ८-२८-१मां नागा “ तिथियो"नो उल्लेख छे. आ तिथिओ आजीविक मत के पूरणकाश्यप वगेरेना साधुओ छे. ----इंडियन एन्टिक्वेरी, बोम्बे, ओगस्ट, सन् १९३० एक बौद्ध विद्वाने तामील भाषाना प्राचीन मणिमेले काव्यमां साफ साफ लख्यं छे के--जैन श्रमणो निम्रन्थ अने आजीविक एम बे विभागमा विभक्त छे जे पैकीना निम्रन्थो अरिहंतना अनुयायी छे. जेमां निग्रन्थिनीओना पण समावेश थाय छे. निर्ग्रन्थिनीओना प्रभाव तामिल महिला समाजपर विशेष हतो. ज्यारे आजीविका-दिगम्बरो तेनाथी भिन्न छे. __ -बुद्धिस्ट स्टडीझ, बाय डो० बी० सी० लव, कलकत्ता, १९३१ पृष्ठ-१५ आ प्रमाण आजीविक मत अने दिगम्बर संप्रदायनी कडीने अविसंवादपणे व्यवस्थित करे छे. दिगम्बर मान्य बाबू कामताप्रसाद “मणिमेखले " ना आधारे हवे कबुल करे छे के-आजीविक भ० महावीरके समयमें एक स्वतंत्र सम्प्रदाय था, किन्तु उपरान्त कालमें वह दिगम्बर सम्प्रदायमें समाविष्ट हो गया था । आ शब्दाथी पण आजीविक अने दिगम्बरोनी अभेदता स्पष्ट थाय छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003643
Book TitleTapagaccha Shraman Vansh Vruksh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantilal Chottalal Shah
PublisherJayantilal Chottalal Shah
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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