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है । उन्होंने “प्राप्ते पञ्चमे वर्षे किसी अन्य ग्रंथ से उद्धृत किया है और यह माना है कि रघु का लिपि संस्कार पाँच वर्ष की वय में, मुण्डन संस्कार के बाद प्रारम्भ हुआ था ।
कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र ( २/४/४ ) में लिखा है कि पांच वर्ष की आयु में बालक का मुण्डन संस्कार होना चाहिए और उसके बाद ही वर्णमाला और अंकज्ञान का अभ्यास अपेक्षित होता है । जैन आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में लिपि संस्कार के लिए बालक की पाँच वर्ष की आयु निर्धारित की है। उनकी दृष्टि में भी चौलकर्म पहले हो जाना चाहिए ।' कवि वादीभसिंह के छत्रचूड़ामणि में कुमार जीवन्धर का अक्षरारम्भ पाँच वर्ष की आयु में हुआ था । पार्श्वनाथ चरित में भी कुमार रश्मिवेग ने लिपि का आरम्भ पाँच वर्ष की आयु में किया था । 3
विद्वानों के मध्य प्रश्न यह रहा है कि बालक का विद्यारम्भ चौलकर्म के बाद पाँच वर्ष की आयु में करना चाहिए अथवा उपनयन संस्कार के अनन्तर आठ वर्ष की आयु में ? उपनयन संस्कार अथवा उपनीतिक्रिया के सम्बन्ध में, आदि पुराण में लिखा है कि यह गर्भ से अष्टम वर्ष में सम्पन्न होता है । इसमें बालक को मूँज की बनी मेखला धारण करनी होती है। इसे मौंजीबन्धन कहते हैं । मेखला तीन लर की होती है और उसे रत्नत्रय का द्योतक माना जाता है। बालक को सफेद धोती पहनना, चोटी रखना और सात लर का यज्ञोपवीत धारण करना होता है । विद्यासमाप्ति तक ब्रह्मचर्यव्रत और भिक्षावृत्ति आवश्यक मानी गई है ।" याज्ञवल्क्यस्मृति, संस्काररत्नमाला और स्मृतिचन्द्रिका आदि वैदिक ग्रंथों में उपनयन के बाद ही लिपिज्ञान और शास्त्र
ज्ञान का आरम्भ बतलाया गया है। जैन महाकवि असग ने वर्द्धमान चरित (५/२७) में और कवि धनञ्जय ने द्विसन्धान महाकाव्य ( ३ / २४ / ) में भी उपनयन के बाद ही बालक का अक्षरारम्भ अथवा अन्य विद्यारम्भ स्वीकार किया है, अर्थात् ये लोग लिपिसंस्कार चौलकर्म के बाद नहीं, अपितु उपनयन संस्कार सम्पन्न होने पर मानते हैं। चौलकर्म पाँच वर्ष की आयु में और उपनयन आठ वर्ष की आयु में होता है । 'जम्बूस्वामी चरिउ' में लिखा है कि कुमार
आठ वर्ष की आयु में सम्पूर्ण सूत्रार्थों और निःशेष कलाओं को जान लिया था । इसका अर्थ है कि कुमार ने पाँच वर्ष की आयु में विद्यारम्भ किया और आठ वर्ष की आयु तक, अपनी कुशाग्रबुद्धि के कारण वह समूची विद्याओं में पारंगत हो गया । उपर्युक्त चरित्र के कथन से ऐसा ही आभासित होता है१. आदिपुराण, ३८ / १०२-१०३.
२. छत्रचूड़ामणि, १/११०-११२. ३. पार्श्वनाथ चरित, ४ / २६-२८.
४. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, गणेशवर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी, पृष्ठ २६१-६२.
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