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________________ .. ७७ साधुओं को देखा था।' वह उनके त्याग, तप, नितांत अनासक्ति और वीतरागता से इतना अधिक प्रभावित हुआ था कि आचार्य दोलामस को अपने साथ यूनान ले जाना चाहता था, किन्तु उन्होंने इनकार कर दिया, फिर भी वह एक साधु को ले जाने में समर्थ हुआ। इस क्षेत्र में जैन साधुओं की यह परम्परा एक लम्बे काल से अविच्छिन्न रूप में चली आ रही थी, ऐसा मैं मानता हूँ। उसका आधार भी है । आदि तीर्थंकर ऋषभदेव, जिनका उल्लेख वेदों से श्रीमद्भागवत् तक में पाया जाता है और जिन्हें कुछ विद्वानों ने वेद-पूर्व भी स्वीकार किया है, ने पंजाब और सीमान्त का समूचा भाग अपने पुत्र बाहुबलि को दिया था । वे ही इस प्रदेश के राजा थे। कल्पसूत्र के अनुसार भगवान् ने अपनी पुत्री ब्राह्मी, जो भरत के साथ सहजन्मा थी, बाहुबलि को दी थी। उसका अधिवास इधर ही था। अन्त में वह प्रव्रजित होकर और सर्वायु को भोगकर सिद्धलोक में गई। 3 यदि यह कथन सत्य मान लिया जाये तो ब्राह्मी इस प्रदेश की महाराज्ञी थी। अन्त में वह साध्वी -प्रमुखा भी बनी । इधर ही उसने तप किया । उसकी लोक-प्रियता की बात मैं पहले ही लिख चुका हूँ । आगे चलकर उसकी स्मृति में जन साधारण ने अपनी श्रद्धा के पुष्प अर्पित किये हों, तो कुछ अनुचित नहीं लगता। यह संभव है कि उसके नाम पर कभी विशाल मन्दिर का निर्माण हुआ हो। आगे अन्य धर्मावलम्बियों ने उसे विनष्ट कर अपनी नई स्थापनाएँ की हों और एक वेदी अपनी सुन्दर चित्रकारी के कारण बच गई हो और उस पर गणेशजी की मत्ति विराजमान कर दी गई हो। ऐसा भारत के अन्य अनेक स्थानों पर भी हुआ है। इस सन्दर्भ में डॉ. मोहनलाल गुप्ता का एक उल्लेख दृष्टव्य है। उन्होंने अपने शोध-प्रबन्ध 'Habitant, Econony and Society in Gaddiyars ( H. P.)' में लिखा है, "प्रश्न यह है कि यदि श्रमण विचारधारा इस क्षेत्र में प्राचीन समय से थी तो बाद में स्पष्टतः उसके दर्शन क्यों नहीं हुए ? इस विषय में हमारा मत है कि वर्तमान चम्बा जिले और भरमौर को सात ईस्वी पश्चात् बौद्धों ने बहुत प्रभावित किया । इससे यहाँ की जैन विचारधारा को आघात पहुँचा होगा । बौद्धों के पश्चात् चम्बा जिले तथा भरमौर को नवीन ढंग से बसाने वाले बर्मन शासकों ने शंकराचार्य के प्रभाव के कारण, इस क्षेत्र से श्रमण सभ्यता के चिह्नों को पूरी तरह नष्ट करके इस स्थिति में ला दिया होगा, जिससे वह क्षेत्र उनके धर्म एवं अस्तित्व का एकमात्र 1. Kausambi D. D., 'An Introduction to the study of Indian History,' Bombay--1959, Page 180. 2. The Lite of the Buddha' by E. I. Thomas, 1927, P. 115. ३. "ऋषभदेवस्य सुमङ्गलायां देव्यां, भरतेन सहजातायां पुत्र्याम्, ति०/सा च बाहुबलिने भगवता. दत्ता प्रव्रजिता प्रवर्तिनी भूत्वा चतुरशीतिपूर्व शतसहस्राणि सर्वाऽऽयुः पालयित्वा सिद्धा ।" कल्पसूत्र १, अधि० ७ क्षण, अभिधान राजेन्द्रकोश, पंचम् भाग, पृष्ठ १२८४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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