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लेखों में मिलता है । वहाँ यह भी लिखा है कि वे सुन्दर अक्षर लिखते थे। अपने सुन्दर अक्षरों के कारण उन्हें गौड़ देश से मध्यदेश अथवा राजपूताना में निमंत्रित किया जाता था। उन्हें संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान होता था, अत: शुद्ध भी लिखते थे ।१ एक जगह लिखा है
''संस्कृत भाषा विपुषा जयगुण पुत्रेण कौतुका लिखिता रुचिराक्षरा
प्रशस्तिः कारणिक जद्धेन गौडेन ॥"२ सुन्दर अक्षर लिखने के सन्दर्भ में कायस्थों का भी उल्लेख आता है। बंगाल के गौड़ कायस्थ इस कार्य में निपुण थे। उन्हें भारत के विभिन्न भागों में निमन्त्रित किया जाता था। खुजराहों के लेख (१० वी सदी), मध्य प्रदेश की कलचुरि प्रशस्ति तथा मारवाड़ से प्राप्त चाहमान लेखों में कायस्थ की प्रशंसा की गई है, क्योंकि वह राजकीय पत्रों को सुन्दर व ललित अक्षरों में लिखता था । अमरकोषकार ने 'लिपिकरोऽक्षरचणोऽक्षरचुञ्चुश्च लेखके 3 सूत्र में अक्षरचण और अक्षरचुञ्च को लेखक और लिपिकर के पर्यायवाचियों में देकर कहना चाहा है कि लेखक को सुन्दर अक्षरों का धनी होना ही चाहिये । कायस्थ सुलेखक थे। इण्डिया एपिग्राफिका में कायस्थ के लेख को कहीं पर 'अखिल दखिल वर्ण व्यक्त पंक्ति प्रशंस्यं" और कहीं 'स्फुट ललित निवेशैरक्षरस्ताम्रपदम्' कहा गया है।
जैन मन्दिरों और भण्डारों में भी ऐसे लेखकों को नियुक्त किया जाता था। वहाँ वे धर्मग्रन्थों की प्रतिलिपि किया करते थे। किन्तु सत्य यह है कि जैन ग्रन्थों की अधिकांश प्रतिलिपियाँ जैन साध, साध्वियाँ, श्रावक और श्राविकाओं के द्वारा तैयार की गई। उन्होंने ब्राह्मण पण्डितों से भी यह कार्य सम्पन्न करवाया। कायस्थ और करणिकों के प्रति उनके हृदय में कहीं-नकहीं शूद्र वाला भाव अवश्य ही सन्निहित था । व्हलर के इस कथन में-'कभीकभी जैन साध्वियाँ भी प्रतिलिपि का काम करती थीं'-कभी-कभी ठीक नहीं है। उन्होंने यह कार्य बहुत किया, ऐसा हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों से विदित
१. डॉ. वासुदेवसिंह, 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन', पृ. २५७. २. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग १, पृ. १२६. ३. अमरकोष, २/८/१५. ४. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग १४, पृ १९५ ५. वही, प. १४. ६. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृ. २०६. "
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