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________________ २८ तेषां राजबल्लभतयातिमायवित्त्वाच्च दुर्निवारत्त्वात् ।"' इससे स्पष्ट है कि वे राज-प्रिय तो थे ही, अतिमायावित् भी थे, अर्थात् माया रचने में निपुण थे। उनके समूचे आदर्श और सिद्धान्त अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए थे। वे अपने अतिरिक्त और किसी का भला नहीं देख पाते थे । वे अत्यधिक स्वार्थी थे। कायस्थ शब्द की व्युत्पत्ति-काये स्थितः से भी यही स्पष्ट होता है कि वे अपनी काया में ही स्थिर रहते थे, अर्थात् अपने स्वार्थों में निमग्न रहते थे। कायस्थ का सबसे पहला उल्लेख 'विष्णुधर्म सूत्र' में मिलता है-"राजाधिकरणे तन्नियुक्तकायस्थकृतं तदध्यक्षकरचिह्नितं राजसाक्षिकम् ।"२ दूसरा उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में आया है, जिसमें कायस्थों से प्रजा को विशेषरूप से रक्षित करने की बात है-“चाट तस्कर दुर्वृत्त महासाहसकादिभि; पीडयमानाः प्रजा: रक्षेत् कायस्थैश्च विशेषतः । ३" बुद्ध गुप्त के समय (ई० सं० ४७६-४९५) के एक ताम्रपात्र के लेख में उल्लेख है कि-"कायस्थों का प्रमुख जिला परिषद् का सदस्य था।" अभिलेखों में राजस्थान का 'काणस्व अभिलेख' (ई० स० ७३८-३९) पहला है, जिसमें कायस्थ शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। गुजरात और कलिंग' के अभिलेखों में इनका प्रायः नाम मिलता है । कल्हण की राजतंरगिणी और क्षेमेन्द्र के लोकप्रकाश में भी इनका एकाधिक बार नामोल्लेख हुआ है। लेखक के अन्य नाम भी थे, जैसे-करण, करणिक, करणिन्, शासनिक और धर्मलेखिन् । करण कायस्थ का पर्यायवाची था। यह भी एक वर्णसंकर जाति थी। याज्ञवल्क्य स्मृति में इसे वैश्य पिता और शूद्रा मां की सन्तान माना है, "वैश्यात्तु करणः शूद्रायां विन्नास्वेष विधिः स्मृतः ।" इन सबका काम वही था जो कायस्थ किया करते थे । प्रायः इन्हें राजाज्ञापत्रों और कानूनी दस्तावेजों को तैयार करना होता था। इनका उल्लेख मध्ययुग के चेदि और चंदेलों के १. मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति, I, ३६६. २. विष्णुधर्मसूत्र, ७वाँ अध्याय, ३ रा श्लोक३. याज्ञवल्क्यस्मृति, १/३६६. ४. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग १५, पृ. १३८. ५. इण्डियन एण्टीक्वेरी, भाग १६, पृ. ५५. ६. वही, भाग ६, पृ १६२. ७. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग ३, पृ. २२४. . ८. डॉ. राजबली पाण्डेय, इण्डियन पेलियोग्राफी, पृ. ६३. ६. याज्ञवल्क्यस्मृति, १/६२. २. .. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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