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अपने इस ग्रन्थ में सिद्ध किया है कि खरोष्ठी विशुद्ध भारतीय लिपि थी। उसका आधार हैं--सम्राट वृषभदेव । उन्होंने अपनी पुत्रियों को बायें से दायें लिखना सिखाया तो दायें से बायें भी ।
ब्राह्मी का निवास पश्चिम में था और वह स्थान तथा लोक-रुचि का विशेष ध्यान रखती थी, ऐसा उसके जीवन से स्पष्ट ही है। हो सकता है कि उसने एक काम चलाऊ दैनिक लोक व्यवहार की लिपि के रूप में खरोष्ठी को जन्म दिया हो। बूलर और ओझा-जैसे विद्वानों ने खरोष्ठी को ब्राह्मी से प्रभावित स्वीकार किया है। जहाँ तक खरोष्ठी के नामकरण का सम्बन्ध है, खर + ओष्ठ (गधे का ओठ) जैसी व्यत्पत्ति, नितांत असंगत है। चीनी मान्यता कि इसका नाम किसी खरोष्ठ नाम के व्यक्ति पर रक्खा गया, सच प्रतीत होती है। मैंने वर्ण-विपर्यय के आधार पर वृषभोष्ठ > रिखबोष्ठ > खरोष्ठ स्वीकार किया है और उसके पीछे सम्राट ऋषभदेव की महत्त्वपूर्ण भूमिका का भी उल्लेख किया है । विद्वानों को यह नवीन-सा प्रतिभासित होगा, किन्तु जैन ग्रन्थों में वह पहले से सुरक्षित है।
अंक लिपि और गणित का जैसा समुन्नत विवेचन जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है, अन्यत्र नहीं । 'अंकानां वामतो गतिः' का मूल साक्षी प्रमाण भी जैन ग्रन्थों में ही मिलता है । ऋषभदेव ने अपनी दूसरी पुत्री सुन्दरी को, जो दाहिनी ओर बैठी थी, अंक लिपि की विद्या प्रदान की। वहाँ से ही वह दायें से बायीं ओर चली । अंकों का जन्म और विकास भारत में हुआ । भारत उनका जन्म स्थल है । ओझा आदि विद्वान् भारतीय मूल अंकों पर विदेशी प्रभाव की बात नहीं मानते । उनका स्पष्ट अभिमत है, "प्राचीन शैली के भारतीय अंक भारतीय आर्यों के स्वतन्त्र निर्माण किये हुए हैं।"१ किन्तु उन्हें शून्य योजना के जन्मदाता का पता न चल सका, जिसने अंकों को नवीन शैली प्रदान की। वैसे वे यह मानते हैं कि-"नवीन शैली के अंकों की भी सृष्टि भारतवर्ष में ही हुई, फिर यहाँ से अरबों ने यह क्रम सीखा और अरबों से उसका प्रवेश योरुप में हुआ।"२ शायद इस सन्दर्भ में ओझा जी ने टोडरमल-रचित 'अर्थ संदृष्टि' नाम का ग्रन्थ न देखा होगा। इसमें उन्होंने ऋण-प्रतीक के लिए पाँच चिह्नों का प्रयोग बतलाया है, उनमें एक शून्य भी है। वहाँ उसका विशद विवेचन है। श्री लक्ष्मीचन्द जैन का अभिमत है कि"अर्थ संदृष्टि सदृश ग्रन्थों के गहन अध्ययन से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधारों
१. प्राचीन लिपिमाला, पृष्ठ 110. २. देखिए वही, पृष्ठ 110.
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