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________________ ११३ बार प्रदेश के लेखों में सातवीं सदी से तमिल का प्रयोग होने लगा था। इसमें संयुक्त व्यञ्जन एक दूसरे से मिला कर नहीं, किन्तु पास-पास लिखे जाते हैं। इसमें कुल' अठारह व्यञ्जन हैं, शायद इसी कारण, इसमें संस्कृत नहीं लिखी जा सकती। उसके लिए ग्रन्थ लिपि की आवश्यकता पड़ती है।' तमिल की ध्वनियाँ पुरानी कन्नड़ और तेलगु के अनुरूप हैं, किन्तु चिह्न भिन्न हैं। इससे उसका पृथक अस्तित्त्व सिद्ध ही है। हुल्श ने जिन करम पट्टों की खोज की है. उनका बड़ा अंश सातवीं सदी की तमिल लिपि और भाषा में है। हुल्श के कथनानुसार इसके अनेक अक्षरों में उत्तरी लिपियों की विशेषताएँ हैं । २ तमिल लिपि का नमूना, करमपट्टों के बाद कथाकूडि पट्टों में मिलता है। इनका समय सन् ७४० ई० के आस-पास माना जाता है। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी के अभिलेखों में तमिल लिपि एक परिवर्तित रूप में मिलती है, शायद ऐसा ग्रन्थ के प्रभाव से हुआ है। ट, प और वहु-बहू ग्रन्थलिपि के रूप हैं। वूलर का कथन है कि ग्यारहवीं सदी से तमिल के क, ङ, च, त और न के सिरों के बाईं ओर नीचे लटकती नन्हीं लकीरें निकल आई हैं । १५ वीं शती में लटकनों का पूर्ण विकास हो गया। उत्तर कालीन तमिल अभिलेखों में पहले तो विराम दुर्लभ हुआ, फिर गायब । अब फिर विराम का प्रयोग होने लगा है। उसके लिए एक बिन्दी लगती है। ___ भास्कर रविवर्मन के अभिलेखों और ताम्रपट्टों में वट्टेलुत्तु लिपि के दर्शन होते हैं। यह एक घसीट लिपि है। इसका तमिल से वही सम्बन्ध है, जैसे क्लर्कों और सौदागरों की लिपि का अपनी मल लिपि से होता है अथवा मराठों को मोड़ी का बालबोध से और डोंगरो की टाकरी का शारदा से है। इसमें सभी अक्षर , एक ही बार में, हाथ को बिना उठाये, बायें से दायें को लिखे जाते हैं। गंगवंशी राजाओं के दानपत्रों में कलिंग लिपि का प्रयोग हुआ था। इनका समय सातवीं सदी मे ग्यारहवीं सदी तक माना जाता है । गंगवंशी राजा मद्रास के गंजाम और कलिंग में शासन करते थे। वहीं इस लिपि का प्रचलन था। इसमें तेलगु, ग्रंथ तथा नागरी लिपि का सम्मिश्रण हुआ है। इसके अक्षरों के सिरों पर सन्दुक की आकृति-सी बनती है । ५ १. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृष्ठ २५४-५५. २. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ १५०-१५१. ३. वही, पृष्ठ १५३. ४. वही, पृष्ठ १५४. ५. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृष्ठ २५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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