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यामलाष्टक तंत्र से ज्ञात होता है कि “गांधर्व वेद" ग्रंथ में छत्तीस हजार श्लोक थे जिसमें संगीत और नृत्य संबंधी नीति नियमों की विस्तृत वर्णना और व्याख्या थी। बाद में भरत मुनि ने इसी ग्रंथ के आधार पर संक्षेप में “नाट्यशास्त्र' की रचना की थी, ऐसा विद्वानों का अनुमान है।
चाहे जो भी हो, ई.पू. पहली सदी में इस गांधर्व वेद के साथ कलिंगवासियों का परिचय था और खारवेळ इसी से विद्याध्ययन कर विशारद बने थे। उदयगिरि- खण्डगिरि में चित्रित नृत्य भंगिमाएं शास्त्रीय अनुकृति हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।
कलिंग में मौर्य शासन के पहले चौंसठ कळाओं से युक्त तौर्यत्रिक (नृत्य, संगीत, वाद्य) की एक उन्नत परंपरा की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। अशोक के राजत्व काल में इसे बंद किया गया था। हाथीगुम्फा अभिलेख की पं.१६ में इसकी सुस्पष्ट सूचना है। कलिंग में मौर्य शासन विजेताओं का शासन था। पर खारवेळ की बात संपूर्ण भिन्न थी। वे कलिंग की संतान, कलिंग की राजनैतिक-परंपराओं के परिपोषक तथा कलिंग संस्कृति के पूजक थे। खारवेळ ने मौर्य शासन काल में व्यवच्छिन्न हुए चौसठ कलाओं से युक्त तौर्यत्रिक का पुनरूद्धार किया था:
“मुरिय काल वोनिं च चोयठि अंग संतिकं तुरियं उपादयति ॥"
कलिंग के कलाप्रेमियों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने अपने राजत्व के तीसरे वर्ष में सर्वत्र संगीत-नृत्य आदि के उत्सव समारोहों की राजकीय पृष्ठपोषकता की। हाथीगुम्फा अभिलेख की भाषामें "उस समय मानों कलिंग नगरी क्रीडाप्रमत्त हो उठी थी [कीडापयति नगरी]"। राणीगुम्फा के खोदित चित्रों से भी खारवेळ का संगीतानुराग और पृष्ठपोषकता का परिचय मिलता है। निचले खण्ड के दाहिनी और के प्रकोष्ठ में संगीत नाटक अनुष्ठान का एक आकर्षक चित्र है। जिसमें चंद्रातप-मण्डित एक रंगमंच पर एक पीनस्तनी यौवनवती नर्तकी नृत्य कर रही है। उसकी युग्म वेणी कमर के नीचे दोनों ओर दोलायमान होकर है। मस्तक पर झीन-उत्तरीय, कानों में कुण्डल,
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