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का आविष्कार हुआ है उससे उस क्षेत्र में जैन संस्कृति की प्राचीनता स्पष्ट रुपसे प्रतिपादित हो जाती है यह महत्वपूर्ण है। ई. छठी-सातबीं सदियों में आनन्दपुर क्षेत्र में जैन धर्म लोकप्रिय था। मध्य युगमें उसे जैन संस्कृति और कला का एक उन्नत क्षेत्र के रूपमें प्रख्याति मिल चुकी थी।
ई. सातवी-आठवी सादियों में कंगोद राज्य ओडिशा के समुद्र तटवर्ती प्रदेश में महानदी से महेंद्रगिरि तक विस्तृत होकर था। उस समय कंगोद में जैनधर्मावलम्बी थे और शैलोद्भव वंशी राजा द्वितीय धर्मराज की रानी भगवती श्री कल्याण देवी भी जैन धर्म की पृष्ठपोषक थीं। वाणपुर ताम्रशासन के वर्णनानुसार रानी ने अर्हदाचार्य नासिचंद्र के शिष्य एकशाट प्रबुद्धचंद्र को जैन धर्म की अभिवृद्धि के लिए भूमि का दान दिया था। राजा द्वितीय धर्म राज ब्राह्मण धर्म के समर्थक थे और स्वयं को परममाहेश्वर के नाम से प्रज्ञापित करेत थे। ब्राह्मण और शैवधर्म के प्रति अनुगत राजा की रानी कल्याण देवी का जैनधर्म की पृष्ठपोषक होना भी गुरुत्वपूर्ण है। प्रबुद्धचंद्र की “एकशाट" पदवी से प्रतीत होता है कि वे एक ही वस्त्र पहना करते थे। शायद उस समय कंगोद राज्य में सभी धर्मों की सहावस्थिति और सहयोग के कारण ही द्रुततर सांस्कृतिक विकास संभव हो पाया था।
मध्ययुगीन ओडिशा के इतिहास में सेमवंशी राजाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्हें ओडिशा के निर्माता के रूप में अभिहित किया गया है [Makers of Orissa] ( इस वंश के राजाओं ने अपने को दान पत्रों में परम-माहेश्वर के रूप से प्रज्ञापित करके मुख्यत: शैवधर्म की पृष्ठपोषकता की थी। परंतु धर्मक्षेत्र में इनकी नीति-उदार थी। सोमवंशी राजा उद्योत केशरी की जैनधर्म के प्रति पृष्ठपोषकता का अभिलेखीय प्रमाण भी प्राप्त हुआ है [ई. १०४०-६०] । खण्डगिरि के ललाटेंदु केशरी गुंफा अभिलेख से यह ज्ञात होता
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