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भरत के नाट्यशास्त्र में [ई.१-२ सदी] इस ओप्राकृत को “ओडू विभाषा" के नाम से नामित किया गया है। प्राचीन संस्कृति की आलेचना के क्षेत्र में भरत की भूमिका गुरूत्वपूर्ण है। अत: उनका अभिमत प्रणिधानयोग्य है। उनके प्रणीत नाट्यशास्त्र में भारत वर्ष । चार सांस्कृतिक क्षेत्रों में विभाजित है। वे हैं “आवंती, दाक्षिणात्य ओड्मागधी और पांचाली":
"चतुर्विधा प्रवृत्तिश्च प्रोक्ता नाट्य प्रयोक्तिभिः। आवंती दाक्षिणात्य च पांचाली चोड्मागधी॥"
[१३-१७]
अन्यत्र इसी ग्रंथ में चार के बदले भरत मुनि ने पांच सांस्कृतिक क्षेत्रों का उल्लेख किया है:
"आवंती दाक्षिणात्य च तथाचैवोड्मागधी। पांचाली मध्यमा चेति विज्ञेयास्तु प्रवृत्तयः॥"
[६-२६]
भरत "प्रवृत्ति" की व्याख्या के रूप में “नाना देश वेश भाषाचार वार्ता:" कहते हैं। अर्थात अलग अलग क्षत्रों में वेश भूषण, भाषा, तौर तरीके आदि के सम्मिलित रूप को “प्रवृत्ति" कहा जाता है। उपरोक्त उद्धृति में “आवंति" पश्चिम भारतीय संस्कृति, "दाक्षिणात्य” दक्षिण में द्राविड़ संस्कृति, “मध्यमा" मध्य भारतीय संस्कृति, पांचाली' उत्तर भारतीय संस्कृति, तथा “ओडू भागधी" पूर्व भारतीय संस्कृति का द्योतक है। ओड्रमागधी संस्कृति की सीमा को भरत ने सुदूर-विस्तारण बताया है। उत्तर में नेपाल से दक्षिण में कलिंग, पूर्व में ब्रह्मदेश से पश्चिम में वत्सराज तक यह सांस्कृतिक क्षेत्र विस्तृत होकर था।
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