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किया है। इसी ग्रंथ में वर्णित है कि उत्कल में वस्स [वत्स]
और भज (भंज) इन दो जाति के लोगों का नथिकवादी और अकिरिआ वादी होने के कारण पहले उन्होंने बुद्ध के द्वारा प्रचारित धर्म को स्वीकारा नहीं था। बडुआ महाशय ने “उक्कल वस्स भब" में से प्रथम दो शब्दों को “उत्कल वर्ष' और 'भत्र' को असभ्य भाषा के रूपमें व्युत्पन्न कर कदर्थ ही कर दिया है। ई. पांचीं सदी में बौद्ध पण्डित बुद्धघोष ने अपने ‘मनोरथ पुसणि' ग्रंथमें इसी उक्कल वस्स भत्र को उत्कल के वत्स और भंज नामसे दो जातियों के रूपमें दर्शाये हैं। लगता है बडुआजी इन ग्रंथो के बारे में जानते नहीं हैं, जानते भी हों तो उपेक्षा से सही अर्थ जानने का प्रयास ही किया नहीं हो। पर यह तो जानना चाहिये कि कदर्थ ग्रहणीय नहीं होता और वह एक हास्यास्पद असफल तथा दायित्वहीन प्रयास ही कहलाता है! लिपिविद जयस्वाल और बेनर्जी ने भी हाथीगुम्फा शिलालेख की भाषा को एक उन्नत भाषा के रूप में स्वीकारा है। उनके मतानुसार यह भाषा शास्त्रीय पालि की अत्यंत समीपवर्तिनी भाषा है। अशोक-कालीन मागधी प्राकृत से यह भाषा भिन्न है बतलाते हुए स्पष्ट रूपमें इसकी स्वतंत्रता पर प्रकाश डाला है। पर इन्होंने भी बडुआ की भांति इसे कलिंग की भाषा के रूप में स्वीकार किया नहीं है। उनका कहना है कि खारवेळ ने इस अभिलेख लेखन के लिये गुजुरात या महाराष्ट्र से किसी जैन साधु को लाया था। उन्होंने यह प्रतिपादित करने के लिये हाथीगुम्फा शिलालेख की १६-वीं पंक्ति के पाठ को आधार के रूप में ग्रहण किया था जिसे पूर्णत: गलत माना जा चुका है।
हाथीगुम्फा अमिलेख की भाषा को कतई तत्कालीन गुजुरात की भाषा मानी नहीं जा सकती। तब गुजुरात में पैशाची प्राकृत भाषा प्रचलित थी जब कि कलिंग ओडू प्राकृत की भूमि थी।
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