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________________ तीर्थ-जिन विशेष [११३] निर्वृत्ति नगरे जायवा, अहिज अविचल साथ, ज्ञानविमल सूरि अम कहे, भव-भव ओ मुज नाथ...३... तुज मूरतिने नोरखवा, मुज नयणां तरसे, तुम गुणगणने वोलवा, रसना मुज हरसे...१... काया अति आणंद मुज, तुम पदयुग फरसे, तो सेवक तार्या विना, कहो किम हवे सरशे...२... अम जाणीने साहिबाओ, नेक नजर मोहे जोय, ज्ञानविमल प्रभु सुनजरथी, तेहशुं जेह नवि होय...३... (१०) अलख अगोचर अकल रूप, अविनाशी अनादि, अक अनेक अनंत अंत, अविकल अविवादि...१... सिद्ध बुद्ध अविरुद्ध शुद्ध, अजर अमर अभय, अव्याबाध अमरतिक, निरुपाधिक निरामय...२... परम पुरुष परमेसरू, प्रथम नाथ परधान, भव-भव भावठ भंजणो, तारक तुं भगवान.. रसना तुज गुण संस्तवे, दृष्टि तुज दरशन, नव अंगे पूजा समे, काया तुज फरशन...४... तुज गुण श्रवणे दोश्रवण, मस्तक प्रणिपाते, शुद्ध निमित्ती सवि हुआ, शुभ परिणती थाते...५... विविध निमित्त विलासथी, विलसे प्रभु ओकांत, अवतरियो अभ्यंतरे, निश्चय ध्येय महंत...६... भावदृष्टिमां भावतां, व्यापक सवि भासे, उदासीनता अवरशं, लीनो तुज गुण वासे...७... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003633
Book TitleChaityavandan Sangraha Tirth Jin vishesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAbhinav Shrut Prakashan
Publication Year
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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