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चत्यवंदन संग्रह
दोठा विण जे देखिये, सूता पण जगवे, अवर विषयथी छोडवे, इन्द्रिय बुद्धि त्यजवे... ८... पराधीनता मिट गई, भेद बुद्धि गइ दूरे, अध्यात्म प्रभु परिणम्यो, चिदानंद भरपूरे... ६... ज्योतिशुं ज्योति मिल गई, प्रगट्यो वचनातीत, अंतरंग सुख अनुभव्यो, निज आतम परतीत...१०... निर्विकल्प उपयोग रूप, पूजा परमारथ, कारक ग्रह अक अ, प्रभु चेतन समरथ... ११... वीतराग ओम पूजताओ, लहिये अविहड सुख, मानविजय उवझायनां, नाठां सघलां दुःख... १२... (११)
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जगन्नाथ जगत्रात, कृपाकर कृपापद, शरण्य भक्त साधार, शृणु विज्ञप्तिकां मम...१... नाथोऽसि त्वमनाथानां, जंतूनां भव तारकः, ममोद्धर्ता किलेदानी - मेकस्त्वमसि वा परः...२... यदहं किंचिद् ज्ञाना - द्विपरीतं तवागमत्, ब्रवीमि मध्ये लोकानां तत्र त्वं मम साक्षिक:...३... त्वत्तः परं न देवं मनसा ध्यायामि सर्वथानाथ, वचसापि न स्तवीमि, प्रणमामि न मस्तकेनाहं ... ४... भाव विशुद्धि स्वामि, मम विज्ञाता त्वमेव सर्वज्ञ, किं बहुना गदितेन, प्रभुरेको मे त्वमेवासि... ५... सामान्य जिन तथा पूजाना फलतु चैत्यवंदन परमानंद विलास भास, शासन छे जेहनु, वरस सहस अकवीश, वहालुं छे तेहनुं ... १...
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