________________
तीर्थ-जिन विशेष
[९६]
-
ज्ञानविमल गुणथी थयो, लोकालोक प्रकाश, मल्लि जिनवर प्रणमतां, पहोंचे मननी आश...३
पुरुषोत्तम परमातमा, परम ज्योति परधान, परमानंद स्वरूप रूप, जगमां नहीं उपमान... मरकत रत्न समान वान, तनु कांति बिराजे, मुख सोहा श्रीकार देखी, विद्युमंडल लाजे. इंदि वर दल नयन सयल, जन आणंदकारी, कुंभ राय कुल भाण भाल, दोधित मनोहारी...३... सुरवधु नरवधु मली मली, जिनगुण गण गाती, भक्ति करे गुणवंतनो, मिथ्या अघ घाती. मल्लि जिणंद पद्मनोओ, नित्य सेवा करे जेह, रूपविजय पद संपदा, निश्चय पामे तेह...५...
जय निजित मदमल्ल, शल्य त्रय वजित स्वामी, जय निजित कंदर्प दर्प, निज आतमरामी.. दुर्जय घातिकर्म मर्म, भंजन भडवीर, निर्मल गुण संभार सार, सागर वर गंभीर...२... अनंत ज्ञान दर्शन धरुओ, मल्लि जिणंद मुणींद, वदन पद्म तस देखतां, लहे चिद्रुप अमंद...३...
अभ्यंतर परिषद अनूप, त्रणशें नृप कन्या, तिम त्रणशें नृप पुत्र बाह्य, परिषदमां धन्या...१...
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org