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________________ आढवेत्ता १५०. कायसंवेध जघन्य, इक सागर नारकि अद्धा । कोड़ पूर्व मनु जन्य, बिहुं भव अद्धा जघन्य ए। १५१. उत्कृष्ट अद्धा जोय, द्वादश सागर नारके। कोड़ पूर्व चिउं होय, च्यार मनुष्य भव नी स्थिति ।। १५२. अष्टम गम मनु जाय, जघन्य अने उत्कृष्ट पिण। ऊपजै नारकि मांय, इक सागर स्थिति में विषे ।। १५३. कायसंवेधे ताय, जघन्य एक सागर कह्यो। कोड़ पूर्व अधिकाय, बिहुं भव अद्धा जाणवू ।। १५४. उत्कृष्ट अद्धा जोड़, च्यार सागर नारक भव । अधिक चिउं पुव्व कोड़, चिउं मनु भव उत्कृष्ट स्थिति ।। १५५. नवम गमे मनु जाय, जघन्य अने उत्कृष्ट फुन । ऊपजै नारकि मांय, तीन सागर स्थिति में विषे ।। १५६. कायसंवेध जघन्य, त्रिण सागर ने कोड़ पुव । उत्कृष्ट अद्धा जन्य, बार सागर चिउ कोड़ पूव ।। १५७. सक्करप्रभा नां एह, नव गमके लद्धी कही। वलि णाणत्ता जेह, कह्या जघन्य उत्कृष्ट गम ।। तीजी स्यूं छठी नरक तक संख्याता वर्ष नों सन्नी मनुष्य ऊपज, तेहनों अधिकार' १५८. *एवं जाव छठी पृथ्वी लग, णवरं विशेष पिछाणो। तीजी पृथ्वी थी आरंभी मैं, इक-इक संघयण हाणी ।। १५९. जिम तिर्यंच पचेंद्री सन्नी, नारकि में ऊपजेहो। तिणमें संघयण घटाया तिम ही, कहिवा मनुष्य विषेहो ।। १६०. काल आश्रयी पिण तिम कहिवो, सन्नी तिर्यंच जेमो। णवरं मनुष्य नां गमा विषे जे, कहिवी मनुष्य स्थिति एमो॥ सोरठा १६१. तिर्यंच स्थिति जघन्य, अंतर्मुहर्त तिरि गमे । मनुष्य गमे फुन जन्य, मनुष्य तणी स्थिति जाणवी ।। १६२. पृथक वर्ष जघन्न, उत्कृष्ट पूर्व कोड़ मनु । सक्कर में उत्पन्न, इम यावत छठी विषे ।। सातवीं नरक में संख्याता वर्ष नो सन्नी मनुष्य ऊपज, तेहनों अधिकार' ओधिक न ओघिक [१] १६३. *पजत्त संख्यात वर्षायु सन्नी मन, हे भगवंतजी ! तेहो। अधोसप्तमी पृथ्वी विषे जे, ऊपजवा जोग्य नेरइयापणेहो।। १६४. किता काल स्थितिक विषे ते प्रभु ! ऊपजै ? जिन कहै जघन्य थी इष्ट । ऊपजै बावीस सागर स्थितिके, तेतीस सागर उत्कृष्ट ।। *लय : राजा राघव रायां रो राय कहायो १. परि०२. यंत्र ७, ९, ११, १३ २. परि०२. यंत्र १५ १५८. एवं जाव छट्ठपुढवी, नवरं-तच्चाए एक्केक्कं संघयणं परिहायति । १५९. जहेव तिरिक्खजोणियाणं । १६०. कालादेसो वि तहेव, नवरं-मणस्सद्विती जाणियव्वा । (श० २४।१०८) १६१. तिर्यस्थितिर्जघन्याऽन्तर्मुहूर्तमुक्ता मनुष्यगमेषु तु मनुष्यस्थितिर्जातव्या । (वृ०प०८१७) १६२. सा च जघन्या द्वितीयादिगामिनां वर्षपृथक्त्वमुत्कृष्टा तु पूर्वकोटीति । (वृ० प० ८१७) १६२. सापतितिव्या महत्तमुक्ता १६३. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएसु उववज्जित्तए। १६४. से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं बावीससागरोवमद्वितीएसु, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमट्टितीएसु उववज्जेज्जा। (श० २४.१०९) श०२४, उ०१, ढा० ४१५ ४७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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