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________________ १६५. ते एक समय प्रभु ! किता ऊपजै ? शेष तिमहिज भणेवो। सक्करप्रभा नों धुर गम भाख्यो, तिमहिज ए जाणेवो ।। १६५. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? अवसेसो सो चेव सक्करप्पभापुढविगमओ नेयव्वो। १६६. नवरं-पढमं संघयणं, इत्थिवेदगा न उववज्जंति, सेसं तं चेव। १६७. जाव अणुबंधो त्ति । भवादेसेणं दोभवग्गहणाई । १६८. कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहत्त मन्भहियाई। १६६. णवरं सातमी पृथ्वी विषे जे, ऊपजै प्रथम संघयणी। इत्थीवेदगा ऊपजै नांही, शेष तिमज विध कहणी ।। १६७. यावत अनुबंध लग जाणवो, भव आश्रयी भव दोयो । एक मनुष्य दूजो सप्तम नरके, तेहथी तिथंच होयो ।। १६८. काल आश्रयी जघन्य संवेधज, बावीस सागर जाणी। वर्ष पृथक बलि अधिक कहीजै, जघन्य काल ए माणी ।। सोरठा १६९. ए सागर बावीस, नरक सप्तमी जघन्य स्थिति । पृथक वर्ष जगीस, जघन्यायु मनु भव विषे ।। १७०. *उत्कृष्ट अद्धा तेतीस सागर, सप्तमी थिति उत्कृष्टं । पर्व कोड़ी अधिक कहीजै, ए नर भव स्थिति जिष्टं ।। १७१. एतलो काल सेवै ते जंतु, करै गति आगति इतो कालो। ओधिक ने ओधिक गमक ए, दाख्यो प्रथम दयालो। ओधिक नैं जघन्य (२) १७२. तेहिज पजत्त संख्यात वर्षायु सन्नी मनु, जघन्य स्थितिक विषे उपन्नों। एहिज वक्तव्यता कहिवी तसु, णवरं विशेष सुजन्नों ।। १७३. नारकि स्थिति माहे फेर जाणवू, वलि कायसंवेध में फेरं। स्वयमेव उभय विचारी कहिवं, आगल ते इम हेरं ।। १७०. उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुव्वकोडीए अब्भहियाई, १७१. एवतियं काल सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा १। (श० २४१११०) १७२. सो चेव जहण्णकालद्वितीएसु उववण्णो, एस चेव वत्तव्वया। नवरं १७३. नेरइयट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा २। (श० २४।१११) सोरठा १७४. नारकि स्थिति ए न्हाल, जघन्य अनै उत्कृष्ट ही। बाबीस सागर काल, तेह विषे ए ऊपनों ।। १७५. कायसंवेध जघन्य, वर्ष पृथक बावीस दधि । उत्कृष्ट अद्धा जन्य, बावीस सागर कोड़ पुव ।। ओधिक नै उत्कृष्ट [३] १७६.* तेहिज पजत्त संख वर्षायु सन्नी मनु, उत्कृष्ट स्थितिके उपनों। एहिज वक्तव्यता कहिवी तस्, णवरं विशेष सूजनों ।। १७७. नारकि स्थिति अनैं संवेधे, भेद बिहं रै मांह्यो। ते स्वयमेव जाणेवा मन स्यं, आगल ते कहिवायो।। सोरठा १७८. नारकि स्थिति ए न्हाल, जघन्य अनें उत्कृष्ट ही। तेतीस सागर काल, तेह विषे ए ऊपनों ।। १७६. सो चेव उक्कोसकालट्टितीएसु उववष्णो, एस चेव वत्तव्यया, नवरं१७७. संवेहं च जाणेज्जा ३ । (श० ४२१११२) *लय: राजा राघव रायां रो राय कहायो ४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ale For Private & Personal use only
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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