SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नोवै देवलोक में सन्नी मनुष्य ऊपज, तेहनों अधिकार' ८६. आणत देवता हे प्रभु! किहां थकी उपजेह जी ? उपपात जिम सहस्सार देव नों, आख्यो तेम कहेह जी ।। ८७. णवरं विशेष छै एतलो, आणत कल्प विषेह जी। तिरिक्खयोनिक नहि ऊपजै, मनुष्य थकी उपजेह जी ।। ५८. जाव पर्याप्त संख्यात जे, वर्षायु सन्नी मनु जेह जो। जेह ऊपजवा ने योग्य छै, आणत कल्प विषेह जी ।। ८६. आणयदेवा णं भते ! कओहिंतो उववज्जति ? उववाओ जहा सहस्सारदेवाणं, ८७. नवरं तिरिक्ख जोणिया खोडे यव्वा, ८९. इत्यादि मनुष्य नी वारता, जिम सहस्सार विषेह जी। ऊपजता ने आखी तिका, वक्तव्यता इहां लेह जी ।। ९०. णवरं धुर तीन संघयण ह, शेष परिमाणादि जाण जी। कहिवो है कल्प सहस्सार ज्यं, अनबंध लग पहिछाण जी ।। ९१. भवादेश करि जघन्य थी, तीन भव ग्रहण करेह जी। उत्कृष्ट सप्त भव ग्रहण छै, हिव तसु न्याय वरेह जी ।। सोरठा ९२. आणत प्रमुख मांय, उपजै मनष्य थकोज ते। चवी मनुष्य में आय, जघन्य थको भव तीन इम ।। ८८.जाव--- (श० २४१३५३) पज्जत्तासंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए आणयदेवेसु उववज्जित्तए ? ८९. मणुस्साण य वत्तव्वया जहेव सहस्सारेसु उववज्ज माणाणं, ९०. नवरं-तिणि संघयणाणि, सेसं तहेव जाव अणु बंधो। ९१. भवादेसेणं जहणेणं ति पिण भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाइं। ९२. 'जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई' ति आनतादिदेवो मनुष्येभ्य एवोत्पद्यते तेष्वेव च प्रत्यागच्छतीति जघन्यतो भवत्रयं भवतीति, (वृ० ५० ५५१,८५२) ९४. एवं भवसप्तकमप्युत्कर्षतो भावनीयमिति, (व०प० ८५२) ९५. कालादेसेणं जहणणं अट्ठारस सागरोयमाई दोहि वासपुहत्तेहिं अब्भहियाई, ९३. प्रथम मनुष्य भव पेख, आणत सुर दूजे भवे । तीजे भव मनु लेख, जघन्य थकी भव तीन इम ।। ९४. भव उत्कृष्टज सात, मनुष्य देव मनु सुर वलि। मनुष्य देव मनु ख्यात, इम उत्कृष्टज सप्त भव ।। ९५. *काल आदेश करि जघन्य थी, सागर कहिय अठार जी। दोय पृथक वर्ष अधिक ही, हिव तसु न्याय अवधार जी ।। सोरठा ९६. प्रथम मनुष्य भव मांय, वर्ष पृथक नों आउखो। भोगव आनत जाय, उदधि अठार जघन्य स्थिति ।। ९७. तीजै भव अवधार, वर्ष पृथक स्थितिक ह्व। एवं उदधि अठार, वर्ष पृथक बे अधिक फुन ।। ९८. *उत्कृष्ट काल भव सप्त नों, उदधि सत्तावन न्हाल जी। कोड़ पूर्व चिहुं अधिक ही, ए गति-आगति काल जी। ९८. उक्कोसेणं सत्तावन्न सागरोवमाई चउहिं पूव कोडीहि अब्भहियाई, एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं काल गतिरागति करेज्जा। सोरठा ९९. आनत कल्पे सोय, उत्कृष्ट स्थिति ते त्रिण सुर भव होय, उदधि सतावन उगणीस दधि । इम हुवै ।। ९९. 'उक्कोसेणं सत्तावन्न' मित्यादि, आनतदेवाना मुत्कर्षत एकोनविंशतिसागरोपमाण्यायः, तस्य च भवत्रयभावेन सप्तपञ्चाशत्सागरोपमाणि। (वृ०प० ८५२) १००. मनुष्यभवचतुष्टयसम्बन्धिपूर्वकोटिचतुष्काभ्यधिकानि भवन्तीति । (वृ० प. ८५२) नां। ही ।। १००. कोड़ पूर्व नां पेख, करै च्यार भव मनुष्य इण न्याये करि लेख, कोड़ पूर्व चिहुं अधिक *लय : मम करो काया माया १. देखे परि. २, यंत्र १५६ २०२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy