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________________ १०१. एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियव्वा, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा । सेसं तं चेव । १०१. *शेष पिण अठ गमा इह विधे, भणवा पिण णवरं विशेख जी। स्थिति संवेध प्रति जाणवू, शेष तिमहिज संपेख जी॥ वा० --इहां आणत सुर नै विषे मनुष्य ऊपजै, तेहनै सहस्सार नै विषे मनुष्य ऊपज तेहनै भलायो । जिवारै कोई पूछ-मनुष्य सहस्सार देव नै विषे ऊपज तेहनी स्थिति जघन्य १७ सागर, उत्कृष्ट १८ सागर हुवं । अनैं आणत देव नीं जघन्य १८ सागर, उत्कृष्ट १९ सागर हुवै । ते इहां सहस्सार सुर थकी आणत देव नी स्थिति में फेर नथी पाइयो ते किम ? इति प्रश्न । तेहनों उत्तर-जे पूर्वे ब्रह्मलोक में ऊपज, ते माहेंद्र में ऊपजै तिण नै भलायो। णवरं ठितिसंवेहं च जाणेज्जा । ए ब्रह्मलोक ना देव नी स्थिति अनै संवेध में फेर जाणवो एवं जाव सहस्सारो वरं -ठितिसंवेहं च जाणेज्जा----इम यावत सहस्सार सुर नी स्थिति संवेध में फेर जाणवो । अन आणत सुर किहां थकी ऊपज ? तेहनों उपपात सहस्सार नी पर कहिवो। णवरं तिर्यच न ऊपजै । जाव पर्याप्त संख्यात वर्षायु सन्नी मनुष्य भगवान ! आणत देव नै विषे ऊपजवा योग्य तेहनीं पूछा-मनुष्य नीं वक्तव्यता जिमहिज सहस्सार नै विषे ऊपजता थका नै तिम कहिवी । णवरं तीन संघयण । शेष तिमज अनबंध लगे। इहां आणत नै सहस्सार भलायो, ते सहस्सार नै विषे ठितिसंवेहं च जाणेज्जा कह्यो। ते आणत सुर नी स्थिति में अनै संवेध में फेर इहां पिण कहिवो । तिहां स्थिति प्रथम, चतुर्थ, सप्तम गमके जघन्य १८ सागर, उत्कृष्ट १९ सागर । अने द्वितीय, पंचम, अष्टम गमके जघन्योत्कृष्ट १८ सागर । अन तृतीय, षष्ठम, नवम गमके जघन्योत्कृष्ट १९ सागर । अनं कायसवेध मनुष्य, आणत सुर ए बिहु नां जघन्योत्कृष्ट भव नु काल विचारी कहिवू । दसवै स्यूं बारहवें देवलोक तक सन्नी मनुष्य ऊपज, तेहनों अधिकार' १०२. एवं यावत ही अच्युत सुरा, णवरं विशेष छै एह जी। द्वितीय तथा कायसंवेध प्रति, उपयोग करीने जाणेह जी ।। वा०-पाणत, आरण, अच्चु सुर नै विषे ऊपजवा योग्य मनुष्य ऊपज, ते केतला काल नी स्थितिक नै विषे ऊपजै ? इहां पाणत सुर नी स्थिति १,४,७ गमे जघन्य १९ सागर, उत्कृष्ट २० सागर । २,५,८ गमे जघन्योत्कृष्ट १९ सागर । ३,६,९ गमे जघन्योत्कृष्ट २० सागर काल स्थितिक नै विषे ऊपजै । अनै आरण सुर नी स्थिति १, ४, ७ गमे जघन्य २० सागर, उत्कृष्ट २१ सागर । २, ५, ८ गमे जघन्योत्कृष्ट २० सागर । ३, ६,९ गमे जघन्योत्कृष्ट २१ सागर काल स्थितिक नै विषे ऊपजै । अनै अच्चु सुर नी स्थिति १,४,७ गमे जघन्य २१ सागर, उत्कृष्ट २२ सागर। २,५,८ गमे जघन्योत्कृष्ट २१ सागर । ३, ६, ९ गमे जघन्योत्कृष्ट २२ सागर । अनै कायसंवेध सर्व नुं विचारी कहिवू । १०३. आनतादिक चिहुं कल्प में, ऊपजता ने कहाय जी। तीन संघयण जे आदि नां, आखिया श्री जिनराय जी। १०२. एवं जाव अच्चुयदेवा, नवरं-ठिति संवेहं च जाणेज्जा। १०३. चउसु वि संघयणा तिण्णि आणयादीसु। (श० २४१३५४) तानस *लय : मम करो काया माया १. देखें परि. २ यत्र १५७ श० २४, उ० २४, ढा० ४३२ २०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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