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________________ ७९. तहेव नव वि गमा भाणियब्वा, नवरं-सणंकुमार दिति संवेहं च जाणेज्जा। (श० २४१३५१) ७९. तिमज इहां पिण नव गमा, णवरं विशेष छै एह जी ।। सनतकुमार नी स्थिति वलो, कायसंवेध जाणेह जी ।। वा०-सन्नी तिथंच सनतकुमार में ऊपजे तिहां नव गमे सनतकुमार देव नी स्थिति कही, तिका इहां पिण जाणवी। अनै कायसंवेध नवं गमे यंत्र थकी जाणवो। ___चोय स्यूं आठवें देवलोक तक सन्नी तियंच अनै सन्नी मनुष्य ऊपज, तेहनों अधिकार' ८०. माहेंद्र देव ! भगवंत जी! किहां थकी उपजत जी? जिम का सनतकुमार नों, तिम माहेंद्र सुर पिण हुंत जी ।। ८०. माहिंदगदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जति ? जहा सणंकुमारदेवाणं वत्तव्वया तहा माहिंदगदेवाण वि भाणियव्वा, ८१. नवरं-माहिंदगदेवाणं ठिती सातिरेगा भाणियव्वा सच्चेव । एवं बभलोगदेवाण वि वत्तव्वया, ८२. नवरं-बंभलोगट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा । एवं जाव सहस्सारो, नवरं-ठिति संवेहं च जाणेज्जा । ८१. णवरं माहिंदग सुर स्थिति, साधिक भणवी है सोय जी। सर्व ही इम ब्रह्मलोक नां, सुर नी पिण वारता जोय जी ।। ५२. णवरं ब्रह्मलोक सुरनों स्थिति, अथवा संवेध पहिछाण जी।। एम यावत ही सहस्सार लग, णवरं स्थिति संवेध जाण जी ।। वा० -- ब्रह्मलोक सुर नी स्थिति पहिले, चौथे, सातमे गमे जघन्य ७ सागर, उत्कृष्ट १० सागर । द्वितीय, पंचम, अष्टम ग मे जघन्य-उत्कृष्ट ७ सागर। तीजे, छठे, नवमे गमे जघन्य उत्कृष्ट १० सागर । अनं कायसंवेध सन्नी मनुष्य अने ब्रह्मलोके सुर-ए बिहुं नां भव नी स्थिति नों काल जघन्योत्कृष्ट विचारी कहिवू । लंतक सुर नी स्थिति १, ४, ७ गमे जघन्य १० सागर, उत्कृष्ट १४ सागर । २, ५, ८, गमे जघन्य-उत्कृष्ट १० सागर । ३, ६, ९ गमे जघन्य-उत्कृष्ट १४ सागर । महाशुक्र देव नी स्थिति १,४,७ गमे जघन्य १४ सागर, उत्कृष्ट १७ सागर । २, ५, ८, गमे जघन्य-उत्कृष्ट १४ सागर । ३, ६, ९ गमे जघन्यउत्कृष्ट १७ सागर । सहस्सार देव नी स्थिति १,४,७ गमे जघन्य १७ सागर, उत्कृष्ट १८ सागर । २, ५, ८ गमे जघन्य-उत्कृष्ट १७ सागर । ३, ६,९ गमे जघन्य-उत्कृष्ट १८ सागर । अन कायसंवेध बिह भवनों विचारी सर्व ठिकाणे कहिवो। ५३. लंतकादिक विषे ऊपजै, जघन्य काल स्थितिक तिर्यंच जी। त्रिण मध्य गमक तेहनै विषे, कहिवी लेश्या छहं संच जी।। वा० सनतकुमार नै विषे जघन्य काल स्थितिक तिरि ऊपजता ने पंच लेण्या पूर्वे जिणे न्याय करिके कही, तिण न्याय करे लंतकादिक नै विषे ऊपजतां ने इहां षट लेश्या कहिवी। ८४. ऊपजतो ब्रह्म लंतके, पंच संघयण धुर पेख जी। महाशुक्र सहस्सार फुन, च्यार संघयण धुर देख जी ।। वा०-- छवटा संघयण नां धणी प्रथम च्यारईज देवलोक नां गमन निबंधपणां थकी अनै पांचमां, छठा कल्प नै विषे ऊपजता थका नै छेवटा बिना पंच संघयण पावै । अनै सातमा, आठमां कल्प में ऊपज, तिण में कीलिका, छेवटा बिना च्यार संघयण पावै । ८३. लंतगादीणं जहण्णकालद्वितियस्स तिरिक्ख जोणियस्स तिसु वि गमएसु छप्पि लेस्साओ कायव्वाओ। वा०-'लंतगाईणं जहणे' त्यादि, एतद्भावना चानन्तरोक्तन्यायेन कार्या, (वृ० ५० ८५१) ८४. संघयणाई बंभलोग-लंतएसु पंच आदिल्लगाणि, महासुक्क-सहस्सारेसु चत्तारि । वा० --सेवार्तसंहननस्य चतुर्णामेव देवलोकानां गमने निबन्धनत्वात्, यदाह"छेवलैंण उ गम्मइ चत्तारि उ जाव आइमा कप्पा । वढेज कप्पजुयलं संघयणे कीलियाईए ॥१॥" (व० ५० ८५१) ८५. तिरिक्खजोणियाण वि मणुस्साण वि । सेसं तं चेव । (श० २४१३५२) ८५. चिहुं संघयण तिर्यंच में पिण अछ, मनुष्य में पिण चिहं जाण जी। शेष तिमहिज कहिवो सह, श्री जिन आण प्रमाण जी ।। १ देखें परि. २, यंत्र १५५-१५७ ०२४. २४. ह.० ४३२, २०१ Jain Education Intemational Education International For Private & Personal use only For Private & P www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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