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देखें, इम कह्यो ते देखवा री शक्ति छँ । तिम नव ग्रैवेयक अनुत्तर विमान में कही ते तो शक्ति रूप अन जीवाभिगम में ३ कही, ते करिया रूप ।'
(स० स० )
१३७. स्थिति अनुबंध जघन्य थी जी कांइ, बावीस दधि धुर पाय । उत्कृष्ट इकतीस उदधि नीं जी कांद नवम चैवेयक मांय जी कांड || १३८. शेष संघवणादिक सह जी कांड, देव तणों अवदात । जिम आणत सुर नीं वारता जी कांइ, तिमज एह विख्यात जी कांइ ॥
वा० - 'नव ग्रैवेयक नां देव मनुष्य में ऊपजतां लद्धि आणत देव नैं भलाई । सो आणत देव में दृष्टि ३ कही । इण भलावण लेखें तो नव प्रवेयक में ३ दृष्टि हु भने जीवाभिन' नवेयक में २ दृष्टि कही ते किम ? इति
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बहुलपण २ दृष्टिईज हुवै । तिहां अल्प काल मार्ट मिश्र नव ग्रैवेयक में मिश्रदृष्टि भलायो ते बहुल पक्षपणे भलावण
प्रश्न । उत्तर - जीवाभिगम में २ दृष्टि कही । बने किंगही बेला किहि देव में मिश्र दृष्टि हुवे दृष्टि न लेखवी हुवै ते पिण केवली जाणें । अनैं जो नहीं तो इहां ओधिक गमे आणत ने हुवे । पिण जे दृष्टि लाभं ते लीजै ।' (ज०स० ) १३९. काल आश्रयी जघन्य थी जी कांइ, बे भव अद्धा ताय । बावीस सागर नीं कही जी कांड, पृथक वर्ष अधिकाय जी कांइ ॥
सोरठा
१४०. पुर वैवेयक मांय, जघन्य बावीस उदधि स्थिति । ते चव नर भव पाय, पृथक वर्ष मनु जघन्य स्थिति ॥ १४१. * उत्कृष्ट अद्धा षट भवे जी कांड, त्र्यांणु सागर ताम । कोड़ पूर्व त्रिण अधिक ही जी कांइ, त्रिण 'सुर त्रिण नर पाम ||
सोरठा
१४२. नवम ग्रैवेयक तीन, उत्कृष्ट स्थिति इकतीस दधि । त्राणू सुर भव तीन, त्रिण भव पूर्व कोड़ त्रिण ।। १४३ *से कालज एतलो जी कांइ, ए गति आगति काल ।
ओधिक नैं अधिक गमो जी कांइ,
दाख्यो प्रथम दयाल जी कांइ ॥ १४४. शेष गमा अठ ने विषे जी कांइ, इमहिज कहियो तेह
गवरं स्थिति तथा वली जी कांइ,
संवेध प्रति जाणेह जी कांइ ॥
*लय म्हारी सासूजी पांच पुत्र कांद
१. जैन विश्वभारती द्वारा प्रकाशित 'उवंगसुत्ताणि' भाग १ के अन्तर्गत जीवाजीवाभीगम पं. ३।११०५ में नव ग्रैवेयक देवों में दृष्टि तीन कही है । प्रस्तुत प्रकरण में दृष्टि दो बताई है। संभव है, जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में दो दृष्टि हो ।
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१३७. ठिती अणुबंधो जहणणेणं बावीसं सागरोवमाई, उनकोसेणं एक्कली सागरोवमाई
१३८. सेसं तं चैव ।
१३९. कालादेसेणं जहणेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुत्तमधहिवाई
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१४०. प्रथमग्रैवेयके जघन्येन द्वाविंशतिस्तेषां भवति
(२०१०८४६) १४१, १४२. उक्कोसेणं तेणउति सागरोवमाई तिहिं पुव्वकोडीहि अमहियाई
इहोत्कर्षतः परभवप्रणानि ततश्च त्रिषु देवभवग्रहणेत्कृष्ट स्थितिषु तिसृभिः सागरोपमाणामेकविशवितस्तेषां स्यात् विभिश्चोत्कृष्टमनुष्यजन्ममितिः पूर्वकोयो भवतीति (बु०प०४९)
१४३. एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ।
१४४. एवं सेसेसु वि अट्ठगमएसु, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा १-९ : ( श० २४ । ३०८ )
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श० २४, उ० २१, ४० ४२९
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