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वा० – प्रवेशक सुर नीं स्थिति दूजे, तीजे गमे जघन्य २२ सागर, उत्कृष्ट ३१ सागर । बिचले तीन गमे जघन्य उत्कृष्ट २२ सागर । छेहले तीन गमे जघन्यउत्कृष्ट ३१ सागर । भव सर्वत्र जघन्य २, उत्कृष्ट ६ । कायसंवेध सर्व नुं विचारी कहियो ।
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हिव अनुत्तर विमान थकी मनुष्य नैं विषे ऊपजै, तेहनों विस्तार कहै छे१४५. अनुत्तरोपपातिक सुरा जी कांइ, चवी मनुष्य में आय तो स्यूं विजय वैजयंत थी जी कांइ,
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जाव सव्वसिद्ध थी थाय जी कांइ ? १४६. जिन कहै विजय तां सुरा जी कांद, चवी मनुष्य में आय जाव सर्वार्थसिद्ध तणां जो कांइ, अमर मनुज भव पाय जी कांइ ॥ १४७. हे प्रभु ! विजय अने वली जो कांइ, वैजयंत सुविचार | जयंत तणां सुर शोभता जी कोइ अपराजित थी सार जी कांइ ॥ १४८. ए च्या नां देवता जी कांइ, मनुष्य विषेज कहेह । जे ऊपजवा योग्य छै जी कांइ, कि काल स्थिति उपजेह जी कांइ ? १४९. जिम मैवेयकसुर तण जी कांइ वक्तव्यता संपेक्ष आखी तिम कहिवी इहां जी कांइ,
वरं इतरो विशेख जी कांइ ॥ १५०. जघन्य थकी अवगाहना जो कांइ, आंगुल नों सुविशेख । असंख्यातमो भाग छे जी कांइ, उत्कृष्टी कर एक जी कांइ ।। १५१. सम्यकदृष्टी ते हुवे जी कांद, मिध्यादृष्टी मिथ्यादृष्टी नांहि | समा मिथ्यादृष्टी नहिं जी कांइ,
प्यार अन्तर मांहि जो कोइ ॥ १५२. ज्ञानी ते सुरवर हुवै जी कांइ, अज्ञानी नहि होय । नियमा तीनज ज्ञान नी जी कांड, मति चुन अवधि सुजोय जी कांइ ॥ श्रुत १५३. स्थिति जघन्य थी जेहनी जो कांइ, सागर ने इकतीस फुन सागर तेतीस नी जी कांद उत्कृष्टी सुजगीस जी कांई ॥ १५४. शेष परिमाणादिक सहू जी कोई वैवेयक जिम सार भवादेश धुर बे भवे जी कांइ, उत्कृष्टा भव च्यार जी कांइ । १५५. कालादेश करि जघन्य थी जी कांद, अमर उदधि इकतीस । वर्ष पृथक अधिका बली जा कोइ कांइ,
नर भव स्थिती जगीस जी कांइ ॥ १५६. उत्कृष्ट छासठ दधि कह्या जी कांइ, पूर्व कोड़ज दोय । जेष्ठ स्थितिक सुर बे भवे जी कांइ,
फुन बे नर भव होय जा कांइ ॥ १५७. से कालज एतलो जी कांइ, ए गति - आगति काल । अधिक ने ओधिक गमो जी कांड,
दाख्यो प्रथम दयाल जी कांइ ॥
१७८ भगवती जोड़
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१४५. जइ
अणुत्तरोववाइयकप्पातीतावेमाणियदेवे हितो उववज्जंति - कि विजयअणुत्तरोववाइय ? वैजयंतअणुतरोववाइय जाव सव्वदुसिद्ध ?
१४६. गोयमा ! विजयअणुत्तरोववाइय जाव सव्वट्टसिद्धअणुत्तरोववाद | ( श० २४/३०९ )
१४७. विजय-जयंत जयंत अपराजयदेवे णं भंते !
१४८. जे भवि मस्से उबलिए से भंते! केतिकालद्वितीय उपमेया?
१४९. एवं जगदेवा, नवर
१५०. ओगाहणा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं एगा रयणी ।
१५१. सम्मदी तो मिीि नो सम्मामिच्छवि।
१५२. नाणी, नो अण्णाणी, नियमं तिष्णाणी, तं जहाअभिविहिनी नाणी बहिनी
१५३. ठिती जहणेणं एक्कतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई ।
१५४. सेसं तं चैव । भवादेसेणं जहणणेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई ।
१५५. कालादेसेणं जपणं एकतीसं सामरोवमाई वासपुत्तमम्भहिवाई
१५६. उनकोसे छाट्ठ सागरोवमाई दोहिं पुव्वकोडीह अमहियाई,
१५७. एवतियं कालं सेबेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा |
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