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________________ १२७. जइ गवेज्जा-कि हेट्ठिम-हेट्ठिम-गेवेज्जगकप्पातीता जाव उवरिम-उबरिम गेवेज्जा ? १२८. गोयमा ! हेडिम-हेट्ठिम-गेवेज्जा जाव उवरिम-उवरिम गेवेज्जा। (श० २४।३०७) १२७. ग्रैवेयक थी जो ऊपजै जी कांइ, तो स्यूं हेठिम-हेठिम । प्रैवेयक कल्पातीत थी जी काइ, जाव उवरिम-उवरिम जी कांइ ? १२८. जिन कहै हेठिम-हेठिम थकी जी कांड, जाव उवरिम-उवरिम । ए नवमा ग्रैवेयक थी जी काइ, मनुष्य विषे अवगम जी काइ। मनुष्य में प्रवेयक देव ऊपज, तेहनों अधिकार' १२९. सुर ग्रैवेयक थी प्रभुजी ! कांइ, मनुष्य विषेज कहेह । जे ऊपजवा योग्य छै जी काइ, कित काल स्थितिक उपजेह जी कांइ ? १३०. श्री जिन भाखै जघन्य थी जी काइ, वर्ष पृथक स्थितिकेह । उत्कृष्ट कोड़ पूर्व तणे जी कांड, आयु विषे उपजेह जी काइ।। १३१. शेष संघयणादिक सहू जी काइ, वक्तव्यता संपेख । दाखी आणत देव नी जी कांइ, कहिवो तिमज अशेख जी कांइ ।। १३२. णवरं तसु अवगाहना जी कांइ, इक भवधारणी माग। जघन्य थकी आंगुल तणों जी काइ, असंख्यातमो भाग जी कांइ ।। १३३. उत्कृष्टी बे कर तणों जी कांइ, फून तेहनोंज संठाण । समचउरंस आकार छै जी कांइ, तिण करि संस्थित जाण जी कांइ । १३४. समुद्घात पंच वलि कह्या जी कांइ, प्रथम वेदना जोय । यावत तेजस पंचमी जी काइ, फुन जिन भाखै सोय जी कांइ ।। १३५. पिण निश्चै करिने तिके जी काइ, वैक्रिय तेजस ताहि । समुद्घात कीधा नथी जी कांइ, न करै करस्यै नांहि जी कांइ ।। १२९. गेवेज्जगदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उव वज्जित्तए, से णं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उव वज्जेज्जा? १३०. गोयमा ! जहण्णेणं वासपुहत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुचकोडीट्टितीएसु । १३१. अवसेसं जहा आणयदेवस्स वत्तब्वया, १३२. नवरं-ओगाहणा-एगे भवधारणिज्जे सरीरए । से जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, १३३. उक्कोसेणं दो रयणीओ। संठाणं-एगे भवधार णिज्जे सरीरे । से समचउरंससंठिए पण्णत्ते । १३४. पच समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा-वेदणासमुग्घाए जाव तेयगसमुग्घाए, १३५. नो चेव णं वेउव्वियतेयगसमुग्धाएहिं समोहणिसु वा, समोहणंति वा, समोहणिस्संति वा । सोरठा १३६. वैक्रिय तेजस दोय, प्रयोजन तणां अभाव थी। न किया न करै कोय, आगामिक करिस्यै नथी ।। वा०- 'इहां नव ग्रैवेयक में समुद्घात ५ कही। तिण माहिली वैक्रिय, तेजस-ए २ समुद्घात कीधी नहीं, करै नहीं, करिस्यै नहीं। अनै जीवाभिगम' में नव ग्रैवेयक अनुत्तर विमान में प्रथम ३ समुद्घात कही। इहां भगवती में ५ कही । ते वैक्रिय, तेजस शत्ति रूप जाणवी। अनै जीवाभिगम में ३ कही ते करिवा रूप । जिम नंदी सूत्रे (सू० २२) कहो-अवधिज्ञान थी उत्कृष्ट देख तो लोक में सर्व रूपी द्रव्य जाण-देखें अनै लोक जेता असंख खंडवा अलोक में वा०–'नो चेव णं वेउविए' त्यादि, अवेयकदेवानामाद्याः पञ्च समुद्घाता: लब्ध्यपेक्षया संभवन्ति, केवलं वैक्रियतै जसाभ्यां न ते समुद्घातं कृतवन्त: कुर्वन्ति करिष्यन्ति वा, प्रयोजनाभावादित्यर्थः, (वृ० प० ८४५, ८४६) १. देखें परि. २, यंत्र १३७ २. जैन विश्वभारती द्वारा प्रकाशित 'उवंगसुत्ताणि' भाग १ के अन्तर्गत जीवा जीवाभिगा प. ३११११३ में नवग्रैवयेक देवों में समुद्घात का पाठ भगवती सूत्र की तरह ही है । संभव है, जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में समुद्घात तीन हों। १७६ भगवती जोड़ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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