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सोरठा ११८. उत्कृष्ट एगुणवीस, सागर तीन गुणां किया।
सप्त पचास जगीस, उदधि हुवै आणत विषे ।।
११८. आनते उत्कृष्टस्थितेरेकोनविंशतिसागरोपमप्रमा
णाया भवत्रयगुणनेन सप्तपञ्चाशत्सागरोपमाणि भवन्तीति ।
(व०प०८४५) ११९. एवतियं काल सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति
करेज्जा ।
१२०. एवं नव वि गमा, नवरं-ठिति अणुबंध संवेहं च
जाणेज्जा।
१२१. एवं जाव अच्चुयदेवो, नवरं-ठिति अणुबंध संवेहं
च जाणेज्जा।
१२२. पाणयदेवस्स ठिती तिगुणिया सटुिं सागरोवमाई,
१२३. आरणगस्स तेवढेि सागरोवमाई,
१२४. अच्चुयदेवस्स छावर्द्धि सागरोवमाई।
(श० २४१३०५)
११९. *सेवै कालज एतलो जी कांइ, ए गति-आगति काल । ओधिक नै ओधिक गमो जी कांइ,
दाख्यो प्रथम दयाल जी कांइ ।। १२०. एम नवू ही गमा प्रतै जी कांइ, कहिवा विचारी जेह । णवरं स्थिति अनुबंध नै जी कांइ,
फुन संवेध जाणेह जी कांइ ।। १२१. इम यावत अच्युत लग जी कांइ, णवरं स्थिति अनुबंध । संवेध प्रति फुन जाणवू जी कांइ,
उपयोगे करि संध जी कांइ ॥ १२२. पाणत सुर स्थिति जेष्ठ थी जी काइ, आखी सागर बीस। ते त्रिगुणी कीधां हुवै जी काइ,
सागर साठ जगीस जी कांइ ।। १२३. आरण स्थिति उत्कृष्ट थी जी काइ, एक बीस दधि सोय ।
ते त्रिगुणां कीधां थकां जी कांइ, सागर तेसठ होय जी काइ।। १२४. अच्यूत स्थिति उत्कृष्ट थी जी कांइ, उदधि बावीस उदार ।
ते त्रिगुणां कीधां हुवै जी कांइ, सागर छासठ सार जी काइ।
वा०-आणत सुर नी स्थिति अनै अनुबंध जघन्य दूजे, तीजे गमे १८ सागर, उत्कृष्ट १९ सागर । चउथे, पांचमे, षष्ठम गमे जघन्य-उत्कृष्ट १८ सागर । सातमे, आठमे, नवमे गमे जघन्य-उत्कृष्ट १९ सागर । पाणत सुर नीं स्थिति अनै अनुबंध प्रथम ३ गमे जघन्य १९ सागर, उत्कृष्ट २० सागर । बिचले तीन गमे जघन्य-उत्कृष्ट १९ सागर । छहले तीन गमे जघन्य-उत्कृष्ट २० सागर । आरण सुर नी स्थिति प्रथम ३ गमे जघन्य २० सागर, उत्कृष्ट २१ सागर । बिचले तीन गमे जघन्य-उत्कृष्ट २० सागर । छहले तीन गमे जघन्य-उत्कृष्ट २१ सागर । अच्युत सुर नी स्थिति प्रथम तीन गमे जघन्य २१ सागर, उत्कृष्ट २२ सागर । बिचले ३ गमे जघन्य-उत्कृष्ट २१ सागर । छहले तीन गमे जघन्यउत्कृष्ट २२ सागर । भव सर्वत्र जघन्य २, उत्कृष्ट ६ । कायसंवेध सर्व न विचारी कहिवो।
मनुष्य में कल्पातीत देव ऊपज - १२५. कल्पातीतज सुर थकी जी कांइ, मनुष्य विषे उपजेह । तो स्यूं ग्रेवेयक थकी जी कांइ,
अनुत्तर विमान थी लेह जी कांइ? १२६. जिन कहै |वेयक थकी जी काइ, अनुत्तर विमान थी जेह । ए बिहुं कल्पातीत तूं जी काइ,
मनुष्य विषे उपजेह जी कांइ॥
१२५. जइ कप्पातीतावेमाणियदेवेहितो उववज्जंति-कि
गेवेज्जाकप्पातीता ? अणुत्तरोववातियकप्पातीता?
१२६. गोयमा ! गेवेज्जाकप्पातीता, अणुत्तरोववातियकप्पातीता ।
(श० २४१३०६)
*लय : म्हारी सासूजी रे पाच पुत्र काइ
श.२४, उ० २१, ढा०४२९ १७५
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