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१. ( सूत्र २ )
दर्शन के चार प्रमुख विषय हैं
१. ज्ञान मीमांसा
२. प्रमाण मीमांसा
३. तत्त्व मीमांसा
४. आचार मीमांसा ।
जैनदर्शन में ज्ञानमीमांसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत आगम (नंदी) ज्ञानमीमांसा का मौलिक ग्रंथ है। जैनशासन में चौदह पूर्वो को अमाप्य ज्ञान राशि का आकर माना गया है। उनमें पांचवां पूर्व ज्ञानप्रवाद है। उसमें ज्ञान का विशद वर्णन था । वर्तमान में वह विलुप्त है । 'रायपसेणियं' सूत्र से पता चलता है कि अर्हत् पार्श्व की परम्परा में ज्ञान का स्वतंत्र निरूपण होता था । " वही ज्ञानप्रवाद अथवा पार्श्व की परम्परा महावीर के शासन में प्रचलित रही ।
ज्ञान और प्रमाण
टिप्पण
आगम युग तक जैन साहित्य में ज्ञानमीमांसा का ही प्राधान्य रहा । प्रमाण का प्रवेश दर्शन युग में हुआ है। उसका प्रवेश करवाने वालों में दो प्रमुख हैं - आर्यरक्षित और उमास्वाति । आर्यरक्षित ने अनुयोग का प्रारम्भ पंचविध ज्ञान के सूत्र से किया है। उन्होंने प्रमाण की चर्चा ज्ञान-गुणप्रमाण के अन्तर्गत की है। इसका निष्कर्ष है कि प्रमाणमीमांसा का मौलिक आधार ज्ञान मीमांसा ही है । उमास्वाति ने पहले पांच ज्ञान की चर्चा की है फिर ज्ञान प्रमाण है इस सूत्र की रचना की है।*
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यह निर्विवाद सत्य है कि ज्ञान मीमांसा का जितना विशद निरूपण जैनदर्शन में हुआ है उतना अन्य दर्शनों में नहीं हुआ । प्रस्तुत आगम के अतिरिक्त इसका विशद विवरण विशेषावश्यक भाष्य' आवश्यक निर्युक्ति, ' षट्खण्डागम, कषायपाहुड़, ज्ञानबिन्दु आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है ।
चूर्णिकार ने ज्ञान शब्द की तीन व्युत्पत्तियां की है
१. उगमुत्तागि, रायपसेयिं सू. ७३९ अहं समा निम्माणं पंचविहे गाणे पण तं जहा आभिणियोहियगाणे सुपणाचे ओहिणाने मनपजवणाचे केवलगा । २. अणुगदराई, सू. १ नाणं पंचविहं पगतं तं जहा आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं ।
सूत्र २
१. जानना ज्ञान है ।
२. जिससे जाना जाता है वह ज्ञान है ।
३. जिसमें जाना जाता है वह ज्ञान है ।
हरिभद्र ने भूमिकार का अनुसरण किया है।" मलयगिरि ने प्रथम दो व्युत्पत्तियों का उल्लेख किया है। तीसरी व्युत्पत्ति मंदमति व्यक्तियों के लिए उलझन पैदा कर सकती है इसलिए उसकी उपेक्षा की है । "
जैन दर्शन में ज्ञान का स्वरूप अन्य दर्शनों से भिन्न है ।
३. वही, सू. ५१५
४. तस्वार्थाधिगमसूत्रम्, १०९,१०
५. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ४९ से ३४१
६. आवश्यकनियुक्ति, गा. १ से ७८
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७. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, पृ. २०५-३५३ ८. कषायपाहुड़, पृ. १२-५३
९. नन्दी चूर्ण, पृ. १३ : गाती गाणं-अवबोहमेत्तं, भावसाधणो | अहवा णज्जइ अणेणेति नाणं, खयोवस मियखाइएण वा भावेण जीवादिपदत्था णज्जंति इति णाणं, करणसाधणो | अहवा णज्जति एतम्हि त्ति णाणं, नाणभावे जीवो ति अधिकरणसागो ।
१०. हारिमा वृति पृ.१०
११. मलयगिरीया वृत्ति, प. ६५
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