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________________ नंदी कोडाकोड़ योजन अथवा कोड़ाकोड़ योजनपृथक्त्व तथा उत्कृष्ट सर्वलोक को देखकर प्रतिपतित हो जाता है, चला जाता है। वह प्रतिपाती अवधिज्ञान है। पहत्तं वा, जोयणं वा जोयणपुहत्तं गव्यूति वा, गव्यूतिपृथक्त्वं वा, योजनं वा, जोयणसयं वा जोयणसयपुहत्तं वा, योजनपृथक्त्वं वा, योजनशतं वा, वा, जोयणसहस्सं वा जोयणसहस्स- योजनशतपृथक्त्वं वा, योजनसहस्र पहत्तं वा, जोयणलक्खं वा जोयण- वा, योजनसहस्रपृथक्त्वं वा, योजनलक्खपृहत्तं वा जोयणकोडि वा लक्षं वा, योजनलक्षपृथक्त्वं वा, जोयणकोडिपुहत्तं वा, जोयणकोडा- योजनकोटि वा, योजनकोटिपृथक्त्वं कोडिं वा जोयणकोडाकोडिपुहत्तं वा, योजनकोटिकोटि वा योजनवा, उक्कोसेणं लोगं वा- कोटिकोटिपृथक्त्वं वा, उत्कर्षेण लोकं पासित्ताणं पडिवएज्जा। सेतं वा-दृष्ट्वा प्रतिपतेत् । तदेतत् पडिवाइ ओहिनाणं॥ प्रतिपाति अवधिज्ञानम् । २१.से कि तं अपडिवाइ ओहिनाणं? अथ किं तद् अप्रतिपाति अवधि- २१. वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान क्या है ? अपडिवाइ ओहिनाणं-जेणं ज्ञानम् ? अप्रतिपाति अवधिज्ञानम्- अप्रतिपाती अवधिज्ञान-जो अवधिज्ञान अलोगस्स एगमवि आगासपएसं येन अलोकस्य एकमपि आकाशप्रदेश अलोकाकाश के एक आकाश प्रदेश को अथवा पासेज्जा, तेण परं अपडिवाइ पश्येत्, तेन परम् अप्रतिपाति अवधि- उससे आगे देखने की क्षमता रखता है।" ओहिनाणं । सेत्तं अपडिवाइ ज्ञानम् । तदेतद् अप्रतिपाति अवधि- वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है। ओहिनाणं ॥ ज्ञानम् । २२. तं समासओ चउब्विहं पण्णत्तं, तं तत् समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, २२. वह (अवधिज्ञान का विषय) संक्षेप में चार जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, तद्यथा--द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, भावओ। भावतः । कालतः, भावतः । तत्थ दव्वओ णं ओहिनाणी तत्र द्रव्यतः अवधिज्ञानी द्रव्य की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्यतः जहण्णणं अणंताई रूविदव्वाइं जघन्यतः अनन्तानि रूपिद्रव्याणि अनंत रूपी द्रव्यों को जानता देखता है। जाणइ पासइ। उक्कोसेणं सव्वाइं जानाति पश्यति । उत्कर्षतः सर्वाणि उत्कृष्टत: वह सब रूपी द्रव्यों को जानता रूविदव्वाइं जाणइ पासइ। रूपिद्रव्याणि जानाति पश्यति । देखता है। खेत्तओ णं ओहिनाणी जहण्णणं क्षेत्रतः अवधिज्ञानी जघन्यतः क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्यत: अंगुलस्स असंखेज्जइभागं जाणइ अङ गुलस्स असंख्येयतमभागं जानाति अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानता देखता पासइ। उक्कोसेणं असंखेज्जाइ पश्यति । उत्कर्षतः असंख्येयानि अलोके है । उत्कृष्टतः वह अलोक में लोक-प्रमाण अलोगे लोयमेत्ताइं खंडाई जाणइ लोकमात्राणि खण्डानि जानाति असंख्यात खंडों को जानता देखता है। पासइ। पश्यति । काल की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्यतः आवलिका के असंख्यातवें भाग को जानता देखता है। उत्कृष्टतः वह असंख्येय अवसर्पिणी उत्सर्पिणी प्रमाण अतीत और भविष्य काल को जानता देखता है। कालओ णं ओहिनाणी जहण्णणं कालतः अवधिज्ञानी जघन्यतः आवलियाए असंखेज्जइभागं आवलिकायाः असंख्येयतमं भागं जाणइ पासइ। उक्कोसेणं असंखे- जानाति पश्यति । उत्कर्षतः असंज्जाओ ओसप्पिणीओ उस्सप्पि- ख्येयाः उत्सपिणीः अवसपिणी: णीओ अईयमणागयं च कालं अतीतमनागतञ्च कालं जानाति जाणइ पास। पश्यति । भावओ णं ओहिनाणी जहण्णणं भावतः अवधिज्ञानी जघन्यतः अणंते भावे जाणइपासइ । उक्को- अनन्तान भावान जानाति पश्यति । सेण वि अणंते भावे जाणइ पासइ, उत्कर्षतोऽपि अनन्तान् भावान् सव्वभावाणमणंतभागं जाणइ नानाति पश्यति, सर्वभावानामनन्तपास। मागं जानाति पश्यति। भाव की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्यतः अनन्त पर्यायों को जानता देखता है। उत्कृष्टत: भी वह अनन्त पर्यायों को जानता देखता है तथा समस्त पर्यायों के अनन्त भाग को जानता देखता है।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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