SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नंदी गए न पासइ। एवमेव अणाणु- पश्यति, अन्यत्र गतः न पश्यति । गामियं ओहिनाणं जत्थेव समुप्प- ___ एवमेव अनानुगामिकम अवधिज्ञानं ज्जइ तत्थेव संखेज्जाणि वा यत्रव समुत्पद्यते तत्रैव संख्येयानि वा असंखेज्जाणि वा संबद्धाणि वा असंख्येयानि वा सम्बद्धानि वा असंबद्धाणि वा जोयणाइं जाणइ असम्बद्धानि वा योजनानि जानाति पासइ, अण्णत्थ गए ण पासइ। पश्यति, अन्यत्र गतः न पश्यति । सेत्तं अणाणुगामियं ओहिनाणं ॥ तदेतद् अनानुगामिकम् अवधिज्ञानम् । क्षेत्र में उत्पन्न होता है उसी क्षेत्र से सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध, संख्येय अथवा असंख्येय योजन तक जानता देखता है, क्षेत्र का परिवर्तन होने पर नहीं देखता।' वह अनानुगामिक अवधिज्ञान है। १८. से कि तं वड्ढमाणयं ओहिनाणं ? अथ किं तद् वर्धमानकम् अवधि- १८. वह वर्धमान अवधिज्ञान क्या है ? बड्ढमाणयं ओहिनाणं-पसत्थेसु ज्ञानम् ? वर्धमानकम् अवधिज्ञानम् ___ वर्धमान अवधिज्ञान-जो प्रशस्त अध्यअज्झवसाणट्ठाणेसु वट्टमाणस्स प्रशस्तेषु अध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य वसायों में वर्तमान और चरित्र में वर्तमान है, वट्टमाणचरित्तस्स, विसुज्झमाणस्स वर्तमानचरित्रस्य, विशुद्धयमानस्य जो विशुद्धयमान और विशुद्धयमान चरित्र विसुज्झमाणचरित्तस्स सव्वओ विशुद्धचमानचरित्रस्य सर्वतः वाला है उसका अवधिज्ञान सब ओर से बढ़ता समंता ओही वड्ढइ। समन्ताद् अवधिर्वधते। जावइआ तिसमयाहारगस्स यावती त्रिसमयाऽहारकस्य १. पनक का जीवन जो सूक्ष्म है तीन सुहुमस्स पणगजीवस्स। सूक्ष्मस्थ पनकजीवस्य । समय का आहारक है उसके शरीर की जितनी ओगाहणा जहण्णा, अवगाहना जघन्या, जघन्य अवगाहना होती है उतना अवधिज्ञान ओहीखेत्तं जहण्णं तु ॥१॥ अवधिक्षेत्रं जघन्यं तु ॥ का जघन्य क्षेत्र है। सव्वबहु अगणिजीवा, सर्वबह्वग्निजीवा, २. जिस समय अग्नि के सर्वाधिक जीवों निरंतरं जत्तियं भरिज्जंसु । निरन्तरं यावद् अभाएः। ने निरंतर रूप से जितने क्षेत्र को व्याप्त खेत्तं सव्वदिसागं, क्षेत्रं सर्वदिक्कं, किया था, उतना सब दिशाओं में परमावधि परमोही खेत्त-निद्दिट्ठो॥२॥ परमावधिः क्षेत्र-निर्दिष्टः॥ का क्षेत्र बतलाया है।" अंगुलमावलियाणं, अंङ गुलाऽऽवलिकयो, ३. अंगुल के असंख्येय भाग क्षेत्र को देखने भागमसंखेज्ज दोसु संखेज्जा। भागमसंख्येयं द्वयोः संख्येयौ। वाला काल की दृष्टि से आवलिका के अंगुलमावलियंतो, अङ गुलमावलिकान्तः, असंख्येय भाग तक देखता है। अंगुल के आवलिया अंगुल-पुहतं ॥३॥ आवलिकाऽङ गुल-पृथक्त्वम् ॥ संख्येय भाग क्षेत्र को देखने वाला आवलिका के संख्येय भाग क्षेत्र को देखता है। अंगुल जितने क्षेत्र को देखने वाला भिन्न (अपूर्ण) आवलिका तक देखता है । काल की दृष्टि से एक आवलिका तक देखने वाला क्षेत्र की दृष्टि से अंगुल पृथक्त्व (दो से नौ अंगुल) क्षेत्र को देखता है। हत्थम्मि मुहुत्तंतो, हस्ते मुहूर्तान्तः, ४. एक हाथ जितने क्षेत्र को देखने वाला दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्वो। दिवसान्तर्गव्यूते बोद्धव्यः । अंतर्महत जितने काल तक देखता है, एक जोयणदिवसपुहुत्तं, योजने दिवसपृथक्त्वम्, गव्यूत (गाऊ) क्षेत्र को देखने वाला अंतपक्खंतो पण्णवीसाओ ॥४॥ पक्षान्तः पञ्चविंशतिम् ॥ दिवसकाल (एक दिन से कुछ कम) तक देखता है । एक योजन क्षेत्र को देखने वाला दिवस पृथक्त्व (दो से नौ दिवस) काल तक देखता है । पच्चीस क्षेत्र योजन को देखने वाला अंतः पक्ष काल (कुछ कम एक पक्ष) तक देखता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy