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परिशिष्ट ३ : कथा
२०७
सेठ की सारी सम्पत्ति को दो मिल जाएगा ।
गया। न्याय के लिए वे न्यायालय में गईं । न्यायाधीश ने कुछ समय चिन्तन करके अपना निर्णय दिया भागों में विभाजित कर दो तथा इस बच्चे के भी दो टुकड़े कर डालो। दोनों को अपना-अपना हिस्सा इस निर्णय का सौतेली मां पर कोई असर नहीं हुआ पर सच्ची माता का दिल कांप उठा। उसने सोचा-बच्चा उसके पास रहेगा तो आंखों से मैं भी देख सकूंगी पर इसके दो टुकड़े कर देने पर क्या होगा ? वह विलाप करती हुई बोली – ऐसा मत करिए । पुत्र और घर की मालकिन इसे बना दीजिए, मैं जैसे-तैसे अपना गुजारा कर लूंगी। मां की व्यथा ने रहस्य का उद्घाटन कर दिया । न्यायाधीश ने संपत्ति और पुत्र पर उसका अधिकार घोषित कर दिया।
१८.
[मधुमक्खियों का छाता ]
पति पत्नी में कलह होता रहता था। एक दिन दोनों मधुसिक्थ (छत्ता) के पास गए। पति बोला-शहद में कितनी मिठास है । पत्नी बोली - तुम मिठास के हेतु को नहीं जानती। सब मक्खियां रानी के आदेश पर चलती है । इसलिए शहद में मिठास है । तुम भी मेरी बात मानकर चलो, तुम्हारे जीवन में भी मिठास आ जाएगी। पति ने उसकी बात स्वीकार कर ली । कलह समाप्त हो गया । यह पत्नी की औत्पत्तिकी बुद्धि थी ।
उपर्युक्त कहानी नन्दी मलयगिरीया वृत्ति में उपलब्ध कथा का परिवर्तित रूप है ।
१९. मुद्रिका दृष्टांत
किसी नगर में एक पुरोहितजी जनता के बहुत विश्वास पात्र थे । कोई भी व्यक्ति दूर देश की यात्रा पर जाता तो अपनी बहुमूल्य चीजें पुरोहितजी के पास रख देता था। एक बार किसी एक द्रमक ने दूर देश जाते समय एक हजार मोहरों की नौली उसके पास रख दी । बहुत समय बाद वह वापिस आया। पुरोहितजी के पास पहुंचकर उसने अपनी थैली मांगी। पुरोहित उसके लिए अपरिचित बन गया और थैली की बात से अनजान होकर उसे बुरा-भला कहने लगा । आगन्तुक स्तब्ध रह गया । वह अपने भाग्य को कोसने लगा ?
एक दिन मन्त्री से उसकी भेंट हो गई। रोते-रोते उसने अपना दुःख कह सुनाया। प्रधानमन्त्री को उस पर दया आ गई । मन्त्री ने सारा घटनाचक्र राजा के सामने रखा। राजा ने पुरोहित को बुलाया और कहा – पुरोहितजी ! उस बेचारे की धरोहर उसे सौंप दो । पुरोहित ने अस्वीकार करते हुए कहा कि मेरे पास उसका कुछ भी नहीं है । राजा मौन हो गया । पुरोहित अपने घर चला गया। राजा ने उस व्यक्ति को एकांत में बुलाकर पूछा कि सच बताओ क्या तुमने एक हजार स्वर्ण मुद्राएं पुरोहित के पास रखी थीं । उसने राजा को दिन, मुहूर्त, स्थान, पार्श्ववर्ती मनुष्य की पूरी जानकारी दी। राजा को विश्वास हो गया ।
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एक दिन राजा ने पुरोहित के साथ क्रीड़ा करने का नाटक रचा। परस्पर नामांकित मुद्रा का विनिमय कर लिया। राजा ने अपने कर्मचारी को वह नाममुद्रा दी और कहा कि मैं जो कह रहा हूं पुरोहित को उसका पता नहीं चलना चाहिए। तुम पुरोहित के घर जाओ और उसकी पत्नी से कहो मुझे पुरोहित ने तुम्हारे पास भेजा है यदि विश्वास न हों तो उसकी नामांकित मुद्रिका देख लो, जो प्रमाण है । उस द्रमक की हजार मुद्रा वाली नौली मुझे दो। उस कर्मचारी ने जैसा राजा का निर्देश था, वैसा ही किया । पुरोहित की पत्नी ने वह नामांकित मुद्रा देखकर विश्वास किया और उस कर्मचारी को हजार मुद्रा वाली नौली दे दी । कर्मचारी ने उसे राजा को सौंप दिया। राजा ने बहुत सारी नौलियां मंगाई । उनके बीच द्रमक वाली नौली रख दी । द्रमक को बुलाया और पुरोहित को पास में बिठाया । द्रमक अपनी नौली देखकर प्रमुदित हो गया । नेत्र विकस्वर हो गये । चेतना जागृत हो गई । वह हर्ष से उछलकर बोला- राजन् ! यह मेरी नोली है । राजा ने उसे वह नौली दे दी की पत्तिकी बुद्धि थी।
और पुरोहितजी की जिह्वा कटवा दी। यह राजा
२०. अङ्क दृष्टांत
नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ के पास एक आदमी ने हजार रुपयों की थैली धरोहर रूप में रखी । सेठ के मन में पाप आ गया । उसने थैली के निचले हिस्से में छेदकर खरे रुपये निकाल लिए खोटे रुपए भर दिए और नौली की सिलाई कर दी ।
1. ( क ) आवश्यक चूणि, पृ. ५५०
(ख) आवश्यक नियुक्ति हारिमा वृत्ति, पृ. २०१ (ग) आवश्यक निर्युक्ति मलयगिरीया वृत्ति, प. ५२१, ५२२ (घ) नन्दी मलयगिरीया वृत्ति, प. १५६
(च) नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पणकम्, पृ. १३६
(छ) आवश्यक निर्युक्ति दीपिका, प. १७९
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२. (क) आवश्यक चूर्ण, पृ. ५५०
(ख) आवश्यक निर्युक्ति हारिभद्रया वृत्ति, पृ. २८१
(ग) आवश्यक निर्युक्ति मलयगिरीया वृत्ति, प. ५२२
(घ) नन्दी मलयगिरीया वृत्ति, प. १५६
(च) नन्दी हारिभद्रया वृत्ति, टिप्पणकम्, पृ. १३६ (छ) आवश्यक निर्युक्ति दीपिका, प. १७९
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