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नंदी
मेरे अप्रिय व्यवहार से नाराज होकर मेरी मां मुझे विष न दे दे ऐसा सोचकर वह प्रतिदिन पिता के साथ भोजन करने लगा। एक बार वह अपने पिता के साथ उज्जयिनी गया । नगरी बहुत सुन्दर थी। रोहक के मन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा। नगर निरीक्षण के बाद दोनों बाहर आ गए । पिता प्रयोजनवश पुन: शहर में गया । रोहक ने सिप्रा नदी के तट पर बाल में राजमहल तथा कोट-किले सहित समग्र उज्जयिनी का रेखांकन कर दिया। संयोगवश राजा उधर से निकला। रोहक बोला ओ राजपुत्र ! इधर मत आओ। यह राजमहल है, यहां बिना आज्ञा प्रवेश निषिद्ध है । राजा विस्मित होकर घोड़े से नीचे उतरा। धूल में अंकित नगरी का चित्र देखकर राजा बालक पर बहुत खुश हुआ । राजा को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह बालक पहली बार उज्जयिनी में आया है । राजा उसकी प्रज्ञा को देखकर आश्चर्यचकित हो गया। उसने रोहक से पूछा--तुम्हारा नाम क्या है ? किस ग्राम में रहते हो?
रोहक--मेरा नाम रोहक है। यहां पाश्ववर्ती नटों के गांव में रहता हूं।
बातचीत के दौरान भरत आया । पिता पुत्र दोनों अपने गांव चले गए । राजा अपने राजप्रासाद में आ गया । १ ख- शिला दृष्टांत'
उज्जयिनी के राजा ने रोहक की परीक्षा के लिए गांव के प्रधानों को आदेश दिया--तुम्हारे गांव के बाहर जो बड़ी शिला है उसे हटाए बिना ऐसा मण्डप बनाओ जिसमें राजा बैठ सके ।
गांववासी इस आज्ञा को सुनकर बहुत चिन्तित हुए। समस्या को सुलझाने के लिए उन्होंने सभा बुलाई। भरत नट भी उसमें सम्मिलित हुआ । रोहक अपने पिता को बुलाने के लिए वहां गया। देखा-सब लोग चिन्तातुर हैं। उसने पूछा-आप लोग इतने चिन्तित क्यों हैं ? उन्होंने राजा के आदेश की बात कही। उसे सुनकर रोहक बोला—सर्वप्रथम शिला के चारों ओर की जमीन की खुदाई करो। उसके चारों कोनों पर यथास्थान चार खंभे लगा दो फिर बीच की मिट्टी खोद डालो । इसके बाद चारों तरफ दीवार बनाकर उसे लिपाई आदि के द्वारा सुन्दर बना दो। मण्डप तैयार हो जाएगा।
रोहक के परामर्श के अनुसार कार्य प्रारम्भ हुआ। कुछ ही दिनों में मण्डप बनकर तैयार हो गया। राजा को इसकी सूचना दी गई। राजा ने पूछा-यह सब कैसे हुआ, किसकी सूझबूझ से हुआ? उन्होंने सारा वृत्तांत बता दिया। परीक्षा का प्रथम बिन्दु सम्पन्न हो गया। २. पणित दृष्टांत'
एक ग्रामीण ककड़ियों से भरी गाड़ी लेकर शहर में पहुंचा। शहर के द्वार पर उसे एक धूर्त नागरिक मिला । उसने कहा-क्या इन ककड़ियों को एक आदमी खा सकता है ? ग्रामीण हंसकर बोला -ऐसा संभव नहीं है । धूर्त ने कहा -यदि मैं अकेला तुम्हारी सब ककड़ियां खा जाऊं तो तुम मुझे क्या दोगे ? भोला भाला ग्रामीण बोला-ऐसा करके दिखा दो तो मैं तुझे इतना बड़ा लड्डु दूंगा कि इस द्वार से न निकल सके । कुछ लोगों की साक्षी से शर्त निश्चित हो गई।
धूर्त ने सारी ककड़ियां थोड़ी थोड़ी खाकर छोड़ दी और शर्त के अनुसार अपना पुरस्कार मांगने लगा । ग्रामीण स्तब्ध रह गया। वह घबराता हुआ बोला-अभी तक तो मेरी सारी ककड़ियां पड़ी हैं। इन्हें खाने के बाद इनाम मिलेगा। धूर्त ग्रामीण को बाजार में ले गया और बोला-अब इन्हें बेचो । ग्राहक आए और ककड़ियां देखकर बोले-ये तो खाई हुई हैं । अपनी धूर्तता के कारण धूर्त ने ग्रामीण और साक्षियों के सामने यह प्रमाणित कर दिया कि उसने सारी ककड़ियां खा डालीं।
ग्रामीण खिन्न हो गया । उसने धूर्त से अपना पीछा छुड़ाने के लिए एक रुपया देना चाहा पर धूर्त नहीं माना आखिर वह सौ रुपयों तक पहुंच गया, किंतु धूर्त को उससे भी अधिक पाने की आशा थी। अतः वह अपनी बात पर अड़ा रहा कि मुझे तो लड्डु ही लेना है। ग्रामीण ने सुलह के लिए थोड़ा समय मांगा । वह किसी अन्य धूर्त नागरिक से मिला और अपनी समस्या उसके सामने रखी। धूर्त धूर्तता से ही दब सकता है अतः उसने ग्रामीण को एक सीधा किन्तु धूर्तता पूर्ण उपाय बता दिया ।
अपने सलाहकार के निर्देशानुसार ग्रामीण ने एक लड्डु खरीदा। उसे दरवाजे के पास लाकर रख दिया और बोला -- १. (क) आवश्यक चूणि पृ. ५४५
२. (क) आवश्यक चूणि, पृ. ५४६ (ख) आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २७७
(ख) आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. २७८ (ग) आवश्यक नियुक्ति मलयगिरीया वृत्ति, प. ५१७
(ग) आवश्यक नियुक्ति मलयगिरीया वृत्ति, प. ५१९ (घ) नन्दी मलयगिरीया वृत्ति, प. १४५,१४६
(घ) नन्दी मलयगिरीया वृत्ति, प. १४९ (च) नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पणकम्, पृ. १३३
(च) नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति टिप्पणकम् पृ. १३४ (छ) आवश्यक नियुक्ति दीपिका, प. १७८
(छ) आवश्यक नियुक्ति दीपिका, प. १७८
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